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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
भगवानका ध्वजचिन्ह भी ' वृषभ ' ( Bull) था । भगवान ऋषभ - देवकी जो मूर्तियां मिलती हैं उनमें यह बैलका चिह्न मिलता है। " भगवान ऋषभदेव स्वयं ज्ञानी थे। मानवोंमें सर्वश्रेष्ठ थे । उनकी युवावस्थाकी चेष्टायें परोपकार के लिये होती थीं। उनसे जनताका वास्तविक हित साधा था। वे स्वयं गणित, छंद, अलंकार, व्याकरण, लेखन, चित्रलिपि आदि विद्याओं और कलाओंके ज्ञाता थे और उन्होंने ही सबसे पहले इनका ज्ञान लोगों को कराया था । पूर्ण युवा होनेपर उनका विवाह कच्छ महाकच्छ नामक दो राजाओंकी परम सुंदरी और विदुषी नंदा और सुनंदा नामक दो राजकुमारियोंके साथ हुआ था ।
रानी सुनन्दा के समस्त भरतक्षेत्रका पहला सम्राट् भरत चक्रवर्ती नामका पुत्र और ब्राह्मी नामकी कन्या हुई थी। ऋषभदेवने ब्राह्मीको ही पहले पहले लेखनकलाकी शिक्षा दी थी। इसीलिये भारतीय आदि लिपि ' ब्राह्मी लिपि' कहलाती है । दूसरी रानी सुनन्दा के महाबलवान बाहुबलि और परमसुंदरी सुन्दरी नामकी कन्या हुई थी । भरतके वृषभसेन आदि भट्ठानवे भाई और थे । इन सब पुत्रको विविध प्रदेशोंमें राजप्रतिष्ठ करके ऋषभदेव निश्चित हुये थे । यह हम पहले लिख चुके हैं कि प्रजाकी आदि व्यवस्था
१. मोहनजोदरोकी मुद्राओंपर कतिपय कायोत्सर्ग मुदाकी नग्न मूर्तियां अंकित हैं जिनपर बैठका चिह्न भी है। रा० ब० रामप्रसाद्ग चन्दा महाशय उन्हें भ० ऋषभदेवकी मूर्तिके समान प्रगट करते हैं । म० ऋषभदेवने कायोत्सर्ग मुद्रामें तपश्चरण किया था । ( Modern Review, Aug 1932, p. 159 )
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