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चक्रवर्ती हरिषेण ।
[ ३५ कोई नगर था। इसी नगरमें उनके पहले प्रतिनारायण तारकका नन्म हुआ था । दक्षिण भारतमें इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंका राज्य एक समय रहा था । इसलिये ही यह अनुमान ठीक है कि हरिषेण चक्रवर्तीका सम्बंध दक्षिण भारतसे था ।
हरिषेण बाल्यकालसे ही धर्मरुचिको लिये हुए थे। एक रोज वह अपने पिता राजा पद्मनाम के साथ अनन्ततीर्थ मुनिराजकी वंदना करने गये । मुनिराजसे उन्होंने धर्मोपदेश सुना । राजा पद्मनाभ विरक्त होकर मुनि होगये और हरिषेणने श्रावक के व्रत लिये ।
जब पद्मनाभको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब ही हरिषेण चक्रवर्तीको चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई । हरिषेणने पहले केवली भगवानकी वन्दना की, पश्चात् षट्खण्ड पृथ्वीको विजय किया । इस दिग्विजय में उन्होंने निस्सन्देह दक्षिण भारतको भी विजय किया था ।
हरिषेण धर्मात्मा सम्राट् थे । उन्होंने एकदा अष्टान्हिका महाव्रतकी पूजा की, जिससे उनके परिणाम धर्मरससे सलिल होगये । उन्होंने अट्टालिका पर बैठे२ पूर्णचन्द्रको राहुप्रसित देखा, जिससे उन्हें वैराग्य होगया । अपने पुत्र महासेनको राज्य देकर उन्होंने सीमंतक पर्वत पर श्री नाग मुनीश्वरके निकट दीक्षा ग्रहण करली | मुनि हरिषेणने खूब तप तपा और समाधिमरण द्वारा आयु समाप्त करके सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्रपद पाया ।
१ - उ५० ३७ - ८४.............
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