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महाराजा रखण्डु । कोंके वैचित्र्यको धिक्कारती हुई पद्मावती रानी वहां बैठी थी कि वहीं उन्होंने एक पुत्र प्रसव किया। एक मातंग वेषधारी विद्याधरने उस समय पद्मावती रानीकी सहायता की-नवजात शिशुकी रक्षाका भार उसने अपने ऊपर लिया । उस विद्याधरने उस बालकको खूब पढ़ाया-लिखाया और शस्त्रास्त्र चलानेमें निष्णात बनाया। बालकके हाथमें सूखी खुजली भी। इस कारण उसे 'करकंडु' नामसे पुकारने लगे।
बालक करकंडु भाग्यशाली था। जब वह युवा हुआ तो दन्तिपुरके राजाका परलोकवास होगया । उसके कोई पुत्र न था। राजमंत्रियोंने दिव्य निमित्तसे करकंडुको राजत्वके योग्य पाकर उन्हें दन्तिपुरका राजा बनाया । राजा होनेके कुछ समय पश्चात् करकका विवाह गिरिनगरकी रानकुमारी मदनावलीसे होगया ।
चम्पाके राजाने करकंडुको अपना आधिपत्य स्वीकारनेके लिये बाध्य किया, जिसे करकंडुने अस्वीकार किया। आखिर दोनों नरे. शोंमें युद्धकी नौबत आई; पान्तु पद्मावतीने बीचमें पड़कर पितापुत्रकी सन्धि करादी। धाड़ीवाहन पुत्रको पाकर बहुत हर्षित हुए । उन्होंने चम्पाका राजपाट करकण्डुको सौंग और भाप मुनि होगये । करकण्डु सानन्द राज्य करने लगे।
एकवार करकंडुको यह कामना हुई कि उनकी आज्ञा सारे भारतमें निर्वाध रीतिसे मान्य हो; किंतु मंत्रियोंसे उन्हें मालूम हुमा कि द्राविड़ देश के चोल, चेर और पाण्ड्यनरेश उनकी भाज्ञाको नहीं मानते हैं।
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