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महाराजा करकण्डु। [९ बनवा कर. वह सुंदर जिनमूर्ति स्थापित कगई थी। कोई विद्याधर उस मूर्तिको वहाँसे उठा लाये और तेरापुरमें उसको उतारा । फिर वह उस मूर्तिको वहाँसे नहीं ले जासके : करकंडु यह सब कुछ. सुनकर बहुत प्रसन्न हुये । करकंडुने वहाँ दो गुफायें और वनवाई ।
तेरापुरसे करकंडु सिंहलद्वीप पहुंचे और वहाँकी राजपुत्री रतिवेगाका पाणिग्रहण किया। उपरान्त एक विद्याधर पुत्रीको व्याह कर उन्होंने चोल, चेर और पाण्ड्य नरेशोंकी सम्मिलित सेनाका मुकाबला किया और हराकर अपना प्रण पूरा किया । किन्तु जब कर कंहुने उन्हें जैनधर्मानुयायी जाना- उनके मुक्टोंमें जिनप्रतिमायें देखी तो उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ और उन्होंने उन्हें पुनः राज्य देना चाहा; पर वे स्वाभिमानी द्राविडाधिपति यह कह कर तपस्याको चले गये कि अब हमारे पुत्र पौत्रादि ही आपकी सेवा करेंगे । वहाँसे लौटकर तेरापुर होते हुये करकंडु चम्पा आगये और राज्यसुख भोगने लगे।
___ एक दिन चम्पामें शीलगुप्त नामक मुनिराजका शुभागमन हुमा । करकंड सपरिवार उनकी वन्दनाको गया। मुनिराजसे उन्होंने धर्मोपदेश और अपने पूर्वभव सुने, जिनके सुनने से उन्हें वैराग्य होगया और वे अपने पुत्र वसुपालको राज्य देकर मुनि हो गये। मुनि अवस्था में उन्होंने घोर तप तपा और मोक्ष प्राप्त किया। उनकी रानियाँ भी साध्वी होगई थीं।
महाराजा करकंडुकी बनवाई हुई गुफायें आज भी हैद्राबाद राज्यके उस्मानाबाद मिलेमें तेर नामक स्थानपर मिलती हैं। उनकी
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