________________
भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [ ७५:
लोगोंके वंशज हैं ।' निःसन्देह यह कथन सत्यांशको लिये हुये है; क्योंकि इसका अर्थ यही हो सकता है कि सु-राष्ट्रवासी
नमि - विनमिने भगवान ऋषभका धर्म
ग्रहण करके उसका प्रचार अपने विद्याधर जातिके लोगों में किया था, जो उपरान्त मध्य ऐशिया में बहुतायत से मिलते थे । मध्य ऐशियाकी जातियों में र्जनधर्मका सद्भाव था । यह हम अन्यत्र प्रगट कर चुके हैं। उधर यह प्रगट है कि सुराष्ट्र जैनधर्मका केन्द्र रहा है।
૨
सुवर्ण और जैनधर्म |
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवक पुत्रोंके अधिकार में सिन्धु-सुवीर और सुराष्ट्र थे । अन्तमें वे मुनि होगये थे और उन्होंने जैनधर्मका प्रचार किया था । उनके पश्चात् भी सुराष्ट्रमें जैनधर्म के अस्तित्वका वर्णन शास्त्रोंमें मिलता है। स्वयं एक तीर्थकरने सुराष्ट्र तपस्या और धर्मप्रचार किया था। इससे सुराष्ट्र और वढांके निवासियों में जैनधर्म की मान्यता १४ है !
डाँ, तो इस सु-राष्ट्र आकर यादवगण बस गये । द्वारिका उनकी राजधानी हुई और कृष्ण उनकेभ० अरिष्टनेमिका राजा । तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि कृष्णके चचेरे भाई थे। उन्होंने राजकुमारी राजुल के साथ अरिष्टनेमिका विवाह कर
विवाह |
१ - " विशाल भारत" मा० १८ अंक ५ पृष्ठ ६३१ । २"भगवान पार्श्वनाथ" पृ० १४० - १७८ । ३ - हरि० सर्ग १३ श्लोक६४ - ७६ । ४ - हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण आदि ग्रंथ देखो ।
www.umaragyanbhandar.com
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat