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दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल। [६३ थुरा,' पोलासपुर, महिल, महाशोकनगर इत्यादि स्थानोंका प्राचीन वर्णन मिलता है। दक्षिणमथुराको स्वयं पाण्डवोंने बसाया था। पल्लचदेशमें भगवान अरिष्टनेमिका विहार हुआ था, जैसे कि हम भागे देखेंगे। ये ऐसे उल्लेख हैं जो दक्षिणभारतमें जैनधर्मके अस्तित्वको भद्रबाहु स्वामीसे बहुत पहलेका प्रमाणित करते हैं।
यही बात तामिल साहित्यसे सिद्ध होती है। तामिल साहित्यमें मुख्य ग्रन्थ " संगम-काल" के हैं, जिसकी तिथिके विषयमें भिन्न मत हैं। भारतीय पंलि उस कालको ईस्वीरन्से हजारों वर्षों पहले लेजाते हैं; किन्तु आधुनिक विद्वान् उसे ईस्वीसन से चार-पांचसौ वर्ष पहले ईस्वी प्रथम शताब्दितक अनुमान करते है। यह जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट ही है कि 'संगमकाल' के ग्रंथ प्राचीन और प्रमाणिक हैं। इनमें 'तोल्काप्षियम्' नामक ग्रन्थ सर्व प्राचीन है। इसका रचनाकाल ईस्वीपूर्व चौथी शताब्दि बताया जाता है और यह भी कहा जाता है कि यह एक जैन रचना है। इसका स्पष्ट मर्थ यही है कि जैनधर्मका प्रचार तामिलदेशमें मौर्यकालसे पहले होचुका था। तामिल के प्रसिद्ध काव्य 'मणिमेरूलै' और 'सीलप्पद्धिकारम्' हैं और यह क्रमशः एक बौद्ध और जैन लेखककी रचनायें हैं। इनमें जैनधर्मका खास वर्णन मिलता है। बौद्धकाव्य 'मणिमेखलै' से
१-ज्ञातृधर्म कथांग सूत्र पृ० ६८० व हपु० पृ० ४८७ । २-अंतगड़दशांग सूत्र पृष्ठ २२ । ३-अन्तगडदशांग सुत्र पृ० ११। ४-भगवती पृष्ठ १९५८ । ५-बुसृ० ( Budhistic Studies ) पृष्ठ ६७१। ६-बुस्ट०, पृ० ६७४ मोर जैसाई• भा• १० ८९ ।
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