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पौराणिक काल । [१९ भ० ऋषभदेव द्वारा ही हुई थी । भरत युवराज थे और ऋषभदेवके मुनि होजाने पर राज्याधिकारी हुये थे। उनके भाइयों से कतिपयका राज्य दक्षिण भारतके निम्न लिखित प्रदेशोंमें था:
अश्मक, मूलक, कलिंग, कुंतल, महिषक, नवराष्ट्र, भोगवर्द्धन इत्यादि।
भगवान ऋषभदेव और उनकी सन्तान 'इक्ष्वाकु क्षत्रिय' कहलाते थे। यही इक्ष्वाकुवंश उपरान्त 'सूर्य' और 'चन्द्र' वंशों विभक्त होगया था। सम्राट् भरतने सभ्यता और संस्कृतिके प्रसारके लिये छहों खंड पृथ्वीकी दिग्विजय की थी। उन्हींके नामकी अपेक्षा यह देश 'भारतवर्ष ' कहा जाता है। भारतके उत्तर और दक्षिण भागोंका एक ही नाम होना इस बातका प्रमाण है कि समूचा देश भरत महाराजके अधिकारमें था। सारे भारतका तब एक ही राजा, एक ही धर्म और एक ही सभ्यता थी।
नृत्यकारिणी नीलांजसाको नृत्य करते करते ही विलीयमान होता देखकर ऋषभदेवको वैराग्य उत्पन्न हुमा । चैत्र वदी नवमीके दिन भगवान् दिगम्बर मुनि हो तपश्चरण करने लगे। उनके साथ चार हजार अन्य राजा भी मुनि होगए । परन्तु कठिन मुनिचर्याको वह निभा न सके। इसलिये मुनिपदसे भ्रष्ट होकर वे नाना पाखण्डोंके प्रतिपादक हुये । इनमें भ० ऋषभदेवका पौत्र मरीचि प्रधान था उसने सांख्य मतके सदृश एक धर्मकी नींव डाली थी।
आखिर भ० ऋषभदेव सर्वज्ञ परमात्मा हुये और तब उन्होंने सारे देश में विहार करके लोकका महान कल्याण किया था। यह
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