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संक्षिप्त जैन इतिहास । नरपुंगवोंकी जवान हिलाने भरकी देर थी कि लाखों नरमुंड धरातल पर लोटते दिखाई देते । परन्तु दोनों शासकोंके राजमंत्रियोंका विवेक जागृत हुमा । उन्होंने देखा, यह निरर्थक हिंसा है-अनर्थदण्ड है। इसे क्यों न रोका जाय ? दोनोंने नरशार्दूलोंको समझाया । निरपराध मनुष्योंकी अमूल्य जानें क्यों जाँयें ? स्वयं भारत और बाहुबलि ही अपने बल पौरुषकी परीक्षा करलें । यही निश्चित हुआ। मलयुद्ध-नेत्रयुद्ध मादि कई प्रकारके युद्धोंमें दोनों वीरोंने अपने भाग्योंकी परीक्षा की; परन्तु बाहुबलिका पौरुष महान था । भरत उनको न पा पाये। वह खिसिया गये।
भपमानके परितापसे वह ऐसे क्षोभित हुए कि उन्होंने अपने भाई पर ही चक्र चला दिया; किन्तु सगोत्री होने के कारण चक्र भी बाहुबलिका कुछ न विगाड़ सका। हाँ, भरतकी यह खार्थपरता देखकर उनके हृदयको गहरी चोट पहुँची। उनको राज-पाट हेय जंचने लगा। उन्होंने मनुष्यकी माया ममताको धिक्कारा भौर वस्त्राभूषण त्याग कर दिगम्बर मुनि होगए। भरत नतमस्तक होकर अयोध्या लौट आये । पोदनपुर में बाहुबलिका पुत्र राज्यशासन करने लगा मौर उन्हींकी सन्ततिका वहां अधिकार रहा ।
पोदनपुरमें रहकर बाहुबलिने घोर तपश्चरण किया। वह कायोत्सर्ग मुद्रामें शान्त और गंभीर बने हुए एक सालतक लगातार ध्यानमम रहे। चीटियोंने उनके पांवोंके सहारे बांबियां बनाली, लतायें उनके शरीर पर चढ़ गई; परन्तु उनको ज़रा भी खयाल न हुमा । उधर भरतमहाराजको भी भाईके दर्शन करनेकी अभिलाषा
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