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प्रायकन ।
[११ (४) ' मत्स्यपुराण ' (० २४ ) में भी देवासुर युद्धका प्रसंग आया है और उसमें भी उनमें जैन धर्मका प्रचार होना वर्णित है।'
इन उद्धरणोंसे सिद्ध है कि भारतके प्राचीन निवासी असुर लोगोंमें जैनधर्मका प्रचार रहा है। वे देवासुर संग्रामके समय जैनी थे । इसलिये वैदिक आर्योकी सभ्यता और संस्कृतिसे पृथक् और प्राचीन जो सभ्यता और संस्कृति सिन्धु उपत्ययकामें मिलती है वह जैन धर्मानुयायी असुर लोगोंकी कही जासकती है और उसका सादृश्य द्राविड़ सभ्यतासे है। इसलिये उन दोनोंको एक मानना मनुचित नहीं है । जैन ग्रन्थोंसे एक अखिल भारतीय सभ्यता और संस्कृतिका ही पता चलता है।
मोहनजोदरोकी मुद्राओंपर विद्वानोंने ऐसी मूर्तियां और वाक्य पढ़े हैं जिनका सम्बन्ध जैन धर्मसे है । एक मुद्रापर 'जिनेश्वर' शब्द लिखा हुआ पढ़ा गया है। मुद्रामोंपर अङ्कित मूर्तियां योगनिष्ठ कायोत्सर्ग मुद्रावाली नम हैं, जैसी कि जैन मूर्तियां होती हैं। एक पद्मासन मूर्ति तो ठीक भगवान पार्श्वनाथकी सर्पफणमण्डल युक्त प्रतिमाके अनुरूप है। उनकी नासाग्र दृष्टि, कायोत्सर्ग मुद्रा और वृषभादि चिह्न ठीक जिन मूर्तियोंके समान हैं। यह समानता भी उन मूर्तियोंको जैन धर्मानुयायी पुरुषोंद्वारा निर्मित प्रगट करती हैं।
१. पुरातत्य, भा० ४ पृ. १७६ २. इंहिका० भा०८ परिशिष्ट पृ० ३० ३. Modern Review, August 1932, pp. 155-160 ४. मोद०, मा० १ पृ. ६० Plato XIII, 15, 16.
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