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अध्याय ४ : ८७
गम्य पदार्थो में श्रद्धा रखता है वह सम्यग्दृष्टि है।
आगमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्ण दृष्टिकारणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥२२॥
२२. अतीन्द्रिय पदार्थों का अस्तित्व जानने के लिए आगम (श्रद्धा) और उपपत्ति (तर्क) दोनों अपेक्षित हैं। ये मिलकर ही दृष्टि को पूर्ण बनाते हैं।
इन्द्रियाणां चेतसश्च, रज्यन्ति विषयेषु ये। तेषां तु सहजानन्द-स्फुरणा नैव जायते ॥२३॥
२३. इन्द्रिय और मन के विषयों में जिनकी आसक्ति बनी रहती है, उन्हें सहज आनन्द का अनुभव नहीं होता।
सुस्वादाश्च रसाः केचित, गन्धाश्च केचन प्रियाः। सन्तोऽपि हि न लभ्यन्ते, विना यत्नेन मानवैः ॥२४॥ तथाऽऽत्मनि महान् राशि-रानन्दस्य च विद्यते। इन्द्रियाणां चेतसश्च, चापलेन तिरोहितः ॥२५॥
२४-२५. कई रस बहुत स्वादपूर्ण हैं और कई गन्ध बहुत प्रिय हैं किन्तु वे तब तक प्राप्त नहीं होते जब तक उनकी प्राप्ति के लिए यत्न नहीं किया जाता। वैसे ही आत्मा में आनन्द की विशाल राशि विद्यमान है, किन्तु वह मन और इन्द्रियों की चषलता से ढंकी हुई
है।
यावन्नान्तर्मुखी वृत्तिर्बहिर्व्यापारवर्जनम् । तावत्तस्य न चांशोऽपि, प्रादुर्भावं समश्नुते ॥२६॥ २६. जब तक वृत्तियाँ अन्तर्मुखी नहीं बनतीं और उनका
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