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१६२ : सम्बोधि
उसकी प्रतिक्रिया जानी जा सकती है । अन्तर्मन की क्रिया आकार, प्रकार, संकेत मति, चेष्टा, भाषण आदि से जानी जा सकती है तो सूक्ष्म अध्ययन से अवचेतन मन का परिज्ञान क्यों नहीं हो सकता? समस्त प्रवृत्ति के हेतु हैं-शरीर, वाणी और मन । इनकी व्यापार-प्रवृत्ति को योग कहा जाता हैं। योग स्थूल है, स्पष्ट है और और सूक्ष्म प्रवृत्तियों का परिचायक भी है। आत्मा अमूर्त है अतः इन स्थूल प्रवृत्तियों से परिज्ञात नहीं हो सकती।
अविरतिर्दुष्प्रवृत्तिः, सुप्रवृत्तिस्त्रिधास्रवः। यथाक्रमं निवृत्तिश्च, चतुर्धा कर्म देहिनाम् ॥१३॥
१३. अविरति, दुष्प्रवृत्ति, सुप्रवृत्ति और निवृत्ति-प्राणियों की ये चार क्रियाएं हैं। इनमें प्रथम तीन आस्रव हैं और निवृत्ति संवर है।
अशुभैः पुद्गलर्जीवं, बध्नीतः प्रथमे उभे। तृतीयं खलु बघ्नाति, शुभैरेभिश्च संसृतिः॥१४॥ १४. अविरति और दुष्प्रवृत्ति अशुभ पुद्गलों से और सुप्रवृत्ति शुभ पुद्गलों से जीव को आबद्ध करती है । शुभ और अशुभ पुद्गलों का बन्धन ही संसार है।
अशुभांश्च शुभाँश्चापि, पुद्गलास्तत्फलानि च । विजहाति स्थितात्माऽसौ, मोक्षं यात्यपुनर्भवम् ॥१५॥ १५. जो स्थितात्मा शुभ-अशुभ पुद्गल और उनके द्वारा प्राप्त होने वाले फल का त्याग करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है। फिर वह कभी जन्म ग्रहण नहीं करता।
__ प्रवृत्ति चंचलता है और निवृत्ति स्थिरता। निवृत्ति-दशा में आत्मा अपने स्वरूप में ठहर जाती है। वहां शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं का सर्वथा निरोध हो जाता है। उस स्थिति में पुद्गलों का प्रवेश और उनका फल छूट जाता है। आत्मा मुक्त हो जाती है। मुक्त आत्माओं का जन्म-मरण नहीं होता।
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