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अध्याय १० : १८७.
२. भगवान ने कहा-साधक यतनापूर्वक चले, यतनापूर्वक ठहरे, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोए, यतनापूर्वक खाए और यातनापूर्वक बोले । उसे प्रत्येक कार्य में संयत होना चाहिए ।
यतना का अर्थ है-जागना । जो जागता है वह पाता है और जो सोता है वह खोता है। जागरूकता प्रत्येक क्रिया में सरसता भर देती है। असावधानी सरस जीवन को भी नीरस बना देती है। भगवान् महावीर ने साधक को सचेत करते हुए कहा है-"तुम समय मात्र भी प्रमाद मत करो।" प्रमाद जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है। हमारी लापरवाही हमारे लिए ही अभिशाप बनती है। कार्य को समय पर न करने से काल उसका रस पी जाता है। मनुष्य के लिए फिर अनुताप शेष रहता है।
जलमध्ये गता नौका, सर्वतो निष्परिस्रवा। गच्छन्ती वाऽपि तिष्ठन्ती, परिगृह्णाति नो जलम् ॥३॥ ३. जल के मध्य में रही हुई नौका जो सर्वथा छिद्ररहित हो, . चाहे चले या खड़ी रहे, जल को ग्रहण नहीं करती। उसमें जल नहीं. भरता।
एवं जीवाकुले लोके, साधुः सुसंवृतास्रवः । गच्छन् वा नाम तिष्ठन् वा, नादत्ते पापकं मलम् ॥४॥
४. इसी प्रकार जिस साधु ने आस्रव का निरोध कर लिया वह इस जीवाकुल लोक में रहता हुआ, चाहे चले या खड़ा रहे, पाप-मल को ग्रहण नहीं करता।
जो साधक अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ शुभ में प्रवृत्त हुआ है, उसका ध्येय है-- प्रवृत्ति-मुक्त होना। प्रवृत्ति-मुक्त होने से पूर्व जो शरीरापेक्ष क्रिया करता है, वह कैसे पाप रहित हो, इसका उत्तर यहां दिया है। महावीर ने उसके लिए एक छोटा-सा सूत्र दिया है। वह है-यतना, जागरूकता, सचेतनता। यतना को धर्म-जननी कहा है--'जयणेव धम्म जननी' । यतना का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि आप जो क्रिया कर रहे हैं उसमें डूबे रहें । डूबने का अर्थ है-आपको अपना होश नहीं है । यतना अपने आप में बहुत गहरी है। उसका अभिप्राय है-प्रत्येक
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