________________
२५० : सम्बोधि में उनका नियोजन किया जाता है, वह 'प्रतिसंलोनता है।
प्रतिसंलीनता के चार प्रकार हैं : १. इन्द्रिय संलीनता-इन्द्रियों के विषयों पर नियंत्रण करना। २. कषाय संलीनता–कषायों पर विजय पाना। ३. योग संलीनता-मन, वचन और शरीर की प्रवृतियों पर नियंत्रण
रखना। ४. विविक्त-शयन-आसन-एकान्त स्थान में सोना-बैठना ।
विशुद्ध्यं कृतदोषाणां, प्रायश्चित्तं विधीयते । आलोचनं भवेत्तेषां, गुरोः पुरः प्रकाशनम् ॥२८॥
२८. किये हुए दोषों की शुद्धि के लिए जो क्रिया-अनुष्ठान किया जाता है, उसे 'प्रायश्चित्त' कहते हैं। गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना 'आलोचन' है ।
प्रमादादशुभं योगं, गतस्य च शुभं प्रति । क्रमणं जायते तत् तु, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥२६॥ २६. प्रमादवश अशुभयोग में जाने पर पुनः शुभ योग में लौट आना 'प्रतिक्रमण' कहलाता है ।
अभ्युत्थानं नमस्कारो, भक्तिः शुश्रूषणं गुरोः ।
ज्ञानादीनां विनयनं, विनयः परिकथ्यते ॥३०॥ ३०. गुरु आदि बड़ों के आने पर खड़ा होना, नमस्कार करना, भक्ति-शुश्रुषा करना और ज्ञान आदि का बहुमान करना विनय कहलाता है।
आचार्यशैक्षरुग्णानां, संघस्य च गणस्य च ।
आसेवनं यथास्थाम, वैयावृत्त्यमुदाहृतम् ॥३१॥ ३१. आचार्य, शैक्ष (नवदीक्षित), रुग्ण, गण और संघ को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org