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३५२ : सम्बोधि
__एडमंड वर्क भुलक्कड़ स्वभाव के थे। एक बार उन्हें किसी छोटे गांव के चर्च में भाषण देना था। समय था सात बजे का । पहुंच गये घोड़े पर बैठकर चार बजे वहां कोई नहीं था। सिगरेट पीने लगे। घोड़े का मुंह फेर दिया। वापिस घर चले आये । दिशा के परिवर्तन होते ही सब बदल गया। जीवन भी ऐसा ही है। जीवन की दिशा बदल जाए तो संपूर्ण जीवन क्रांतिमय हो जाता है। भावनाओं का अभ्यास इसीलिए विकसित किया गया। मनुष्य भावना के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वह जो कुछ करता है, वह सारा अजित भावना का प्रतिफलन है। भावना सत् और असत् दोनों प्रकार की होती है। ये पांच भावनाएं असत् हैं। इन भावनाओं से वासित व्यक्तियों का अधःपतन होता है। वे स्वयं ही अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाते हैं जीसस ने कहा है-"तुम अपने मुंह में क्या डालते हो, इससे स्वर्ग का राज्य नहीं मिलेगा। किंतु तुम्हारे मुंह से क्या निकलता है उससे स्वर्ग का राज्य मिलेगा।" जैसा बीज बोओगे वैसा फल मिलेगा। विचारों से व्यक्ति की आन्तरिकता अभिव्यक्त होती है । ये पांच भावनाएं व्यक्तियों की विविध असत् चेष्टाओं के आधार पर निर्दिष्ट हैं।
(१) कंदी भावना-राबर्ट रिप्ले नामक व्यक्ति के मन में प्रसिद्ध होने का भूत सवार हो गया। किसी व्यक्ति से सलाह मांगी। उसने कहा-'अपने सिर के आधे बाल कटवा लो और अपना नाम लिखा कर घूमो।' हिम्मत की और शहर में घूम गया। दूसरे दिन अखबारों में फोटो आ गया। मन का संकोच भी मिट गया। अपने सामने कांच रखकर उल्टा चल अमरीका की यात्रा की। लोगों का मन रंजित करने में प्रसिद्ध हो गया। लोगों का मनोरंजन करने लगा। किंतु अन्त में अनुभव हुआ कि सब व्यर्थ गया। उसने लिखा है कि-'प्रदर्शन में जीवन खो दिया।'
(२) अभियोगी भावना- इस संसार में अन्ततः सब विनष्ट होता है। सुख भी लगता है मिलता हुआ किंतु पास आते ही दुःख में बदल जाता है। फिर भी मनुष्य वैषयिक सुखों के लिए किस तरह प्रयत्नरत हैं, यह कम आश्चर्यजनक नहीं है। भर्तृहरि ने कहा है-'मैंने धन की आशंका से जमीन को खोदा, पहाड़ की धातुओं को फंका, मंत्र की आराधना में संलग्न होकर श्मशान में रात्रियां बिताई, राजाओं की सेवा की और समुद्री यात्राएं भी की किंतु फिर भी एक कानी-कोड़ी नहीं मिली हे तृष्णा ! अब तो तू मेरा पीछा छोड़।'
(३) किल्विषिकी भावना-देवदत्त बुद्ध का चचेरा भाई था । बुद्ध उसकाभी हित चाहते थे। किंतु वह ईर्ष्यालु था। बुद्ध को मारने के लिए उसने चट्टान नीचे गिराई।
गोशालक ने महावीर से बहुत कुछ पाया । शिष्यत्व स्वीकार किया। किंतु इन सब को नकार कर उसने महावीर को भस्म करने के लिए तेजोलब्धिं का
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