________________
परिशिष्ट - १ : ४११
व्यवहार बाहर की ओर चलता है । भीतर इनके लिए कुछ भी नहीं है जो इन्हें तृप्त कर सके । भीतर वही जाने को उत्सुक होता है, जो इनसे तृप्त हो जाता है । वह स्व और पर जीवन के अनुभव से देख लेता है कि बाहर कुछ मिला नहीं, न मुझे मिला और न औरों को मिला है । जो सत्य एक पर घटित होता है वह सार्वत्रिक घटित होता है | अनुभव के बिना उसका यथार्थ बोध नहीं होता । दुःख अतृप्ति ही लाती है | पदार्थों के साथ यह सत्य है कि वह अतृप्ति कभी शांत नहीं होती । कहते हैं - सिकन्दर जब भारत आ रहा था तो किसी ने कहा- वहा एक अमृत कुण्ड है, जिसमें आवश्यक नहाकर आना । सिकन्दर को यह याद रहा । अपने अनुचरों से कहा - खोजो, उस अमृतकुण्ड को । जैसे-तैसे पता चल गया । सिकन्दर आया, स्नान करने सीढ़ियों से उतरने लगा तब एक कौवे ने कहासिकन्दर मत नहा | देख मैं पछता रहा हूं। सिर फोड़ रहा हूं, चाहता हूं मौत आ जाय, किन्तु आ नहीं रही है । तू भी पछतायेगा। जीवन में दुःख ही दुख है । सिकन्दर चौका और सोचने लगा । देखा कौआ, सत्य कह रहा है । वासना कभी तृप्त नहीं होती ।' वह उन्हीं पैरों वापिस आ गया ।
ध्यान के पथ पर वही आरूढ़ हो सकता है जिसने सम्यक् जान लिया कि यहां कोई सार नहीं है । जो सार है उसे खोजो । सार - सत्य को जानने की जिसमें अभीप्सा जागृत होती है, वही ध्याता हो सकता है। आचार्यश्री तुलसी ने मनोनुशासनम् में कहा है – 'स्वरूपमधि जिगमिषुर्ध्याता' - जो अपने स्वरूप को ( मैं कौन हूं) जानना चाहता है, वह ध्याता होता है । संसार की असारता का, पीड़ा का
विरक्ति लाता है, और विरक्त व्यक्ति शक्ति की खोज में निकलता है। जहां विरक्ति न हो और कोई विशेष घटना की अभिप्रेरणा न हो, वहां सामान्यतया इस महान दुराध्य पथ पर अग्रसर होना कठिन है। कुछ लोग किसी विशेष उपके लिए कौतूहल वश निकल पड़ते हैं किन्तु वे मंजिल तक नहीं पहुंच सकते । मंजिल पर वे ही पहुंच पाते हैं, जो साध्य के सिवाय और कुछ भी नहीं देखते, मध्य में नहीं रुकते ।
स्वामी रामकृष्ण ने विवेकानन्द से कहा- नरेन्द्र ! मेरे पास अणिमा आदि आठ सिद्धियां हैं । मेरे जैसे व्यक्ति के लिए उनकी कोई जरूरत नहीं । आज तक उनका कोई उपयोग नहीं किया। मैं चाहता हूं वे तुझे दे दूं । तेरे काम आयेगी । विवेकानन्द ने पूछा- क्या ईश्वर प्राप्ति में वे सहयोगी हैं ? कहा- नहीं । विवेकानन्द ने कहा -- तब मुझे नहीं चाहिए। पहले ईश्वर-प्राप्ति, उसके बाद जरूरत होगी तो वे स्वयं दे देंगे ।' सिद्धियों का प्रलोभन कोई कम लोभ नहीं है । सिद्धियों या चमत्कारों की बात इस तथ्य की सूचना है कि साधक में स्वरूप की जिज्ञासा नहीं है, स्थूल वैभव के आकर्षण को छोड़ वह सूक्ष्म में आसक्त है । आसक्ति बन्धन है, संसार है । ध्याता का पहला गुण है – मुमुक्षा, मुक्त होने का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org