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४१० : सम्बोधि
___ मनुष्य का सिर काट देने पर उसकी मृत्यु हो जाती है, वृक्ष के मूल को उखाड़ देने पर वह धराशायी हो जाता है, वैसे ही ध्यान को छोड़ देने पर धर्म निर्जीव हो जाता है। शरीर में जो स्थान मस्तिष्क का है, धर्म में वही ध्यान का है।
ध्यानाध्ययन में आचार्य जिनभद्रगणि कहते हैं-'मोक्ष के दो मार्ग हैं---संवर और निर्जरा। उनका मार्ग है तप और तप का प्रधान अंग है-ध्यान । इसलिए मोक्ष का मुख्य साधन ध्यान है।"
आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्र एक ही स्वर में बोलते हैं कि कर्मक्षय होने से मोक्ष मिलता है और मोक्ष का साधन सम्यग् ज्ञान है। वह सम्यक् ज्ञान ध्यान के द्वारा लभ्य है। इसलिए ध्यान ही आत्मा के लिए हितकर है। ___अग्नि पुराण में लिखा है- न हि ध्यानेन सदृशं, शोधनं पापकर्मणाम्'-ध्यान के समान पापों की शुद्धि करने वाला अन्य कोई नहीं है। ध्यान संसार का उच्छेद करने वाला है। ध्यान के सम्बन्ध में बुद्ध अपने शिष्यों से कहते हैं - 'शिष्यों के हितैषी शास्ता को अपने शिष्यों पर दया करके जो करना चाहिए वह मैंने कर दिया। अब भिक्षुओ! यह वृक्षों की छाया है, ये एकान्त घर हैं, ध्यान करो, प्रमाद मत करो, देखो-पीछे मत पछताना, बस यही हमारा अनुशासन उपदेश है।" महावीर ने अपने शिष्यों को स्थान-स्थान पर ध्यान और कायोत्सर्ग का निर्देश दिया है।
भगवती आराधना में आचार्य लिखते हैं-'जो साधक कषायरूपी शत्रुओं के साथ युद्ध करने में सज्ज हुआ है, उसके लिए ध्यान आयुध है। जैसे रत्नों में वज्ररत्न, सुगन्धित पदार्थों में गोशीर्षचन्दन, मणियों में वैडूर्यमणि है वैसे ही साधक के लिए ध्यान है।
ज्ञानसार में कहा है-'पत्थर में सोना और काष्ठ में अग्नि बिना प्रयोग के परिदृष्ट नहीं होती, वैसे ही ध्यान के बिना आत्मा का दर्शन नहीं होता। ___ध्यान की अनिवार्यता इन तथ्यों में स्पष्ट अभिलक्षित होती है। ___ ध्याता—गीता में कहा है-'हजारों मनुष्यों में से कोई एक व्यक्ति सिद्धि के लिए तत्पर होता है, और उनमें से भी कोई एक मुझे प्राप्त होता है। कबीर की वाणी में है—'लाखिन मध्य क्या देखे कोटिन मध्य देख।' लाखों में क्या देखता है करोड़ों में देख । ध्यान का मार्ग कठिन है-'सूली ऊपर सेज पिया की।' मनुष्य का स्वभाव बहिर्मुखी है । ध्यान अन्तर्मुखी है। मन, इन्द्रिय, बुद्धि वाणी आदि का १. योगशास्त्र ४।११३ । २. अंगुत्तर निकाय ७।७।१०। ३. भगवती आराधना, गाथा १६६१ । ४. भगवती आराधना, गाथा १६६६ ।
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