Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 506
________________ परिशिष्ट - १ : ४४३ शरीर का धर्म है और अहंकार मन का । अहं पर चोट पहुंचती है, वह मन पर पहुंचती है और ममता की चोट शरीर पर । आत्मा का निवासस्थान शरीर है । अनन्त जन्मों के कारण शरीर और आत्मा का इतना सघन तादात्म्य हो गया कि आत्मा शरीर को ही 'आत्मा' मान बैठी। शरीर के सुखी - दुःखी होने पर अपने को सुखी - दुःखी मानना, यह अविद्या है, मिथ्यात्व है । साधना का प्रथम प्रहार इस अद्वैन पर होता है । काया के विसर्जित हो जाने पर भी मैं पूर्ण हूं, जिस दिन यह अनुभव हो जाता है आधी साधना हमारी सिद्ध हो जाती है। आधी जो शेष रहती है, वह है अहंकार - विसर्जन की । मैं 'अहं' यह सूक्ष्मतम है । इसे तो तोड़ना होता है। जहां भी मैं खड़ा होता है, साधक उसे देखता है और उससे पृथक् होने का प्रयास करता है । ध्यान और विसर्जन दो हैं किन्तु साधना पृथक् पृथक् नहीं है । ध्यान के साधक को प्रारम्भ में ही इन दोनों के प्रति सचेत होना है । जब ध्यान में मृत्यु की घटना घटे तो स्वयं को बचाना नहीं है, उसमें स्वयं को छोड़ देना है । अहंकार नहीं चाहता । उसकी मृत्यु होती है। उसका आधार बिन्दु तो शरीर ही है । बोधिप्राप्ति अन्तर बुद्ध ने मन को सम्बोधित कर कहा है- 'मेरे मन ! अब तुझे विदा देता हूं। अब तक तेरी ज़रूरत थी, शरीर रूपी घर बनाने के लिए, अब मुझे अपना परम निवास मिल गया ।" यह सब ध्यान द्वारा लभ्य है । I 1 1 यहां ध्यान की स्थिति सिर्फ दर्शन की स्थिति बनती है । दर्शन की कला महान तप है । देखना है - शरीर को इन्द्रियों को । इनके संवेगों को देखना है तटस्थतापूर्वक । ये क्या कहते हैं ? क्या हैं इनकी अतृप्त इच्छाएं ? किन्तु सहयोग नहीं करना है । इसके बाद देखना है— चेतन मन को । अचेतन का द्वार चेतन की स्थिरता के बाद खुलता है । जो जन्मों-जन्मों का संग्रहालय है, जिसमें बहुत कुछ भरा है उसमें आसक्त नहीं होना है, पकड़ना भी नहीं है, सिर्फ देखना है । भीतर आकाश है, स्पर्श है, रस है, गन्ध है, रूप है, शब्द है । संतों ने इन अनुभवों की चर्चा की है। बिया से किसी ने कहा - 'बाहर आ, देख, कितना सुनहला प्रभात है ।' राबिया भीतर से कहा, यह क्या सुन्दर है, सुन्दर तो वह बनाने वाला है । तू भीतर आ, उसे देख | I कबीर ने कहा है 'पेठि गुफा मह सब जग देखे, बाहर कछु अन सूझे ।' 'बाजत अनहद ढोल ।' इन अनुभवों के पार पहुंचने में कठिनाई होती है और वह यही कि मन आसक्त हो जाता है । साधक समझ लेता है कि मंजिल आ गई, अब कुछ नहीं बचा । किन्तु द्रष्टा और दर्शन, ध्याता, ध्येय और ध्यान का द्वैत वहां भी है, उसे मिटाना है । ध्याता, ध्येय और ध्यान की त्रिपुटी सिमट कर एक हो जाय यही मंजिल है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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