Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 505
________________ ४४२ : सम्बोधि शाली परमात्मा की चर्चा करते हैं, किन्तु उस आनन्द सिन्धु में डुबकी लगाकर संसार-संताप से मुक्त होने वाले कितने हैं ? अष्टाङ्गयोगसिद्धि में लिखा हैध्यान-सिद्धि का कारण वेष-धारण नहीं है और न उसकी बात करना है। सिद्धि का कारण केवल एक ही है ओर वह है क्रिया। सिद्धि उसे मिलती है जो करता है नहीं करने वाले को नहीं मिलती और न शास्त्रों के पढ़ने से ही मिलती है। ध्यान साहित्य सभी धर्मों में विपुल है। वह दुरूह और अगाध विषय है । ध्यान के अनुभव के लिए साहित्य सिर्फ सूचना मात्र है । आधार भूत तथ्य है जीवन में अभ्यास करना । जाने हुए को भूलना भी है और स्मरण भी करना है किन्तु वह स्मरण अनुभूति परक और प्रत्यक्ष हो, ध्यान इसका अनन्यतम माध्यम है । कर्तव्य सिर्फ इतना सा है-मन को खाली करना, निर्विचार करना, विमुक्त करना, एकाग्र करना और राग-द्वेष, घृणा, क्रोध, अहंकार आदि प्रतिक्रियाओं से मुक्त रखना। जिस दिन इसमें सफल हो जाते हैं, कार्य सिद्ध हो जाता है । महावीर ने कहा है 'जहा पउमं जले जायं, नोवलिपई वारिणा। एवं अलितं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ॥ -जैसे कमल पानी में उत्पन्न होता है, किन्तु पानी से अस्पृष्ट रहता है, इसी प्रकार जो कामनाओं के मध्य रहकर भी उनसे अस्पृष्ट रहता है उसे साधक कहा जाता है । ध्यान साधकों ने यही कहा है कि 'नदी' को पार करो किन्तु पानी तुम्हारे पैरों को न छुए। संसार में रहो किन्तु संसार की धूल को अपने पर न लगने दो। ध्यान का यही सार है। ___ व्युत्सर्ग-यह आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है। इसका अर्थ है-विसर्जन। यह साधना की अन्तिम निष्पत्ति है। जो कुछ भी बचा हुआ होता है, यहां सब समाप्त हो जाता है। साधक के पास शेष कुछ नहीं रहता। अहंकार और ममत्व ये दो ही मंजिल के मध्य विघ्न हैं । साधक इनसे पार हो जाता है, तब शेष जो है वही रहता है। तिब्बत का महान साधक मारपा गुरु के पास गया, सत्य की उपलब्धि के लिए। गुरु ने कहा -जो कुछ तेरे पास है वह सब दान कर दे। मारपा ने कहा--मेरा कुछ है भी कहा ? मैं देखता हूं कुछ भी मेरा नहीं है। गुरु ने कहा तू तो है। कम से कम उसी को समर्पित कर दे। मारपा ने कहा-क्या कहते हैं आप, मैं भी तो उसी का हूं। गुरु ने कहा-जा, भाग यहां से । सब कुछ मिला हआ है, अब फिर मत आना। जहां मैं भी नहीं बचता, तब परमात्मा के लिए द्वार खुलता है। ध्यान में भी जिन्हें बचा लिया जाता है, व्युत्सर्ग उनको मुक्त करता है। ममत्व १. ज्ञानार्णव ४/६१॥ २. अष्टांगयोगसिद्धि १/२६, २७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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