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४०८ : सम्बोधि
लिए तप मत करो, पारलौकिक आकांक्षा रख कर तप मत करो और न यश, प्रतिष्ठा, प्रशंसा के लिए तप करो। तप करो-निर्जरा के लिए। चेतना को आवत करने वाले कार्मण शरीर को प्रकम्पित करने लिए तप करो।" इससे यह स्पष्ट है कि वैयावृत्य में कोई लिप्सा नहीं रहती। इसने मेरी सेवा की, इसलिए मैं करूं या इसलिए मैं करूं कि जब मुझे जरूरत पड़ेगी, तब यह करेगा, मेरा इसके साथ सम्बन्ध है, इसलिए करूं-आदि समस्त विकल्प तथा सकामता वैयावृत्य की विशुद्धता नहीं है। वैयावृत्य ऋण-मुक्ति है। अपने कर्म-मल को शुद्ध करना है। वह पूर्ण निष्काम है। जहां न किसी को अपना बनाने का भाव है और न कोई कामना है। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है--"किसी के काम में व्यावृत होना या व्यापार करना ही सेवा नहीं है। सेवा का और कुछ रहस्य है। वह रहस्य हैतादात्म्य की स्थापना करना। समग्रता की अनुभूति का प्रयोग है सेवा। दूसरे व्यक्ति के साथ इतना तादात्म्य कर लेना कि उसका दुःख और मेरा दुःख कोई दो चीज न रहे, दोनों एक हो जाये। उसकी अपेक्षा और मेरी अपेक्षा दो न रहे, एक हो जाए। यह जो तादात्म्य की अनुभूति है, समत्व की अनुभूति है, एकत्व की अनुभूति है, यह है सेवा। काम करना और करवाना, यह व्यवहार मात्र है। यह अन्तर् तप कैसे हो सकता है ? अन्तर् तप उसमें है कि सेवा करने वाला व्यक्ति इतना बदल जाता है, उसमें इतनी करुणा आ जाती है, अहं का इतना विसर्जन हो जाता है कि वह यह कभी नहीं मानता कि यह शरीर मेरा है और वह उसका। वह यह कभी नहीं मानता कि यह जरूरत उसकी है और यह मेरी। अभिन्नता की बात सेवा है।"
(४) स्वाध्याय
स्वाध्याय और ध्यान में सतत अभ्यस्त रहने वाला व्यक्ति पुरातन कर्म-मल को दूर कर देता है, जैसे अग्नि सोने में मिश्रित मल को इस आर्षवाणी से स्वाध्याय का महत्व जाना जा सकता है। तपोयोग में स्वाध्याय का स्थान ध्यान से पूर्व है। स्वाध्याय ध्यान का द्वार है। बीज बोने से पूर्व जैसे खेत को उपयुक्त बनाया जाता है, स्वाध्याय ध्यान के बीज-वपन का आधार है। स्वाध्याय से वृत्तियां शांत हो जाती हैं, चित्त का भटकाव कम हो जाता है, साधक अपने अन्तस्तल में उठने वाली तरंगों से सम्यग् परिचित हो जाता है, तब चित्त का किसी विषय पर स्थिरीकरण या निरोध करना सहज हो जाता है।
स्वाध्याय अन्तर् तप होने के कारण केवल पठन-पाठन, श्रवण तक सीमित नहीं है। वह है सत्य का प्रत्यक्षीकरण । सिर्फ पठन-पाठन करने से सत्य का अनुभव नहीं होता। धर्म केवल विश्वासगम्य नहीं है। वह तो जीवन-बोध की निश्चित दिशा देता है। स्वामी रामकृष्ण ने विवेकानन्द से कहा- "मैंने वेदान्त
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