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४२२ : सम्बोधि
'ध्यायेदनादिसिद्धान्तप्रसिद्धां वर्णमातृकाम् ।
निःशेषशब्दविन्यासजन्मभूमि जगन्नुताम् ।। अनादि सिद्धान्त में प्रसिद्ध जो मातृका-'स्वर और व्यंजन' का चिन्तन करे। क्योंकि यह वर्ण, मातृका सम्पूर्ण शब्द-विन्यास की जन्मभूमि और विश्ववंदनीय है।
मातृका ध्यान
आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है-'मादका का ध्यान करने वाला पुरुष नाभिमण्डल पर स्थित सोलह दल के कमल में प्रत्येक दल पर क्रम से फिरती हुई स्वरावली का अर्थात् 'अ आ इई उऊ ऋऋ लुल एऐ ओऔ अंअ:-इन स्वरों का चिन्तन करे। तत्पश्चात् ध्यानी अपने हृदय स्थान पर कणिका सहित चौबीस पत्रों के कमल का चिन्तन करके उसकी कर्णिका तथा पत्रों में क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ म, इन पच्चीस अक्षरों का ध्यान करे। तत्पश्चात् आठ पत्रों से विभूषित मुख-कमल के प्रत्येक पत्र पर भ्रमण करते हुए ‘य र ल व श ष स ह–इन आठ वर्गों का ध्यान करे !'
मातृका ध्यान का फल
इस प्रकार प्रसिद्ध वर्ण-मातृका का निरन्तर ध्यान करता हुआ योगी भ्रमरहित होकर, श्रुतज्ञान रूपी समुद्र के पार को (उत्तर-तट को) प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार ध्यान करने वाला मुनि श्रुतकेवली हो सकता है ।"२ ध्यान करने वाला पुरुष कमल के पत्र और कणिका के मध्य में अनादि संसिद्ध (पूर्वोक्त ४६) अक्षरों का ध्यान करता हुआ कितने ही काल में नष्टादि वस्तु सम्बन्धी ज्ञान को प्राप्त करता है। इस वर्ण मातका के जाप्य से योगी क्षयरोग, अरुचिपना, अग्निमंदता कुष्ठ, उदर रोग, कास तथा श्वास आदि रोगों को जीतता है और वचनसिद्धता, महान् पुरुषों से पूजा तथा परलोक में उत्तम पुरुषों से प्राप्त की हुई श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है।"
मंत्र
वर्ण, मातृका, बीजाक्षर और मन्त्रों की पृथक्-पृथक् रूप में जब हम चर्चा करते हैं तब मन्त्र की परिभाषा में कुछ भिन्नता हो जाती है। यों तो सभी वर्ण बीजाक्षर मन्त्र हैं, शक्ति सम्पन्न हैं और प्रयोक्ता को अपनी शक्ति का परिचय देते हैं किन्तु जब मन्त्र को पृथक् करते हैं तब उनकी परिभाषा इस रूप में उपलब्ध होती है१. ज्ञानार्णव ३८/३,४,५ । २. ज्ञानार्णव ३८/६। ३. ज्ञानार्णव ३८ / ६ के अन्तर्गत श्लोक ।
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