Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 486
________________ परिशिष्ट-१ : ४२३ दस से बीस वर्गों के समूह को मन्त्र कहा जाता है।' 'इष्टदेव का अनुग्रह विशेष ही मंत्र कहलाता है। देवता के सूक्ष्म शरीर को ही मन्त्र कहते हैं। सर जानवुडरेफ ने शिव, शक्ति और आत्मा के ऐक्यरूप को मन्त्र कहा है। 'चित्तं मंत्र'-शिवसूत्र विशिनी में चित्त को मन्त्र कहा है। तन्त्र में शक्ति को मन्त्र कहा गया है-- __'मननात् सर्वभावानां, त्राणात् संसारसागरात् । ___मन्त्ररूपाहि तच्छक्तिर्मननत्राणरूपिणी ।। समस्त भावों के मनन और समस्त जगत् के त्राणस्वरूप होने के कारण वह मन्त्र रूप शक्ति ही है।' __ मनन और त्राणधर्मात्मक होने के कारण मन्त्र कहा गया है। डा० शिवशंकर अवस्थी ने मनन और त्राण की तान्त्रिक परिभाषा करते हुए लिखा है- 'परनाद या परस्फुरणा का परामर्श ही मनन है, मनन पर शक्ति के महान् वैभव की अनुभूति है -उसके परमैश्वर्य का उपयोग है । अपूर्णता अथवा संकोचमय भेदात्मक संसार के प्रशमन को रक्षा अथवा त्राण कहते हैं। इस प्रकार शक्ति के वैभव या विकासदशा में मननयुक्त तथा संकोच या सांसारिक अवस्था में त्राणमयी विश्वरूप विकल्प को कवलित कर लेने वाली अनुभूति ही मन्त्र है।" मन्त्रों के स्वल्पाक्षरों की असीमित शक्ति का रहस्य अब स्पष्ट है। प्रत्येक शब्द अपनी ध्वनि से प्रकम्पन पैदा करता है और उन प्रकम्पनों से जगत् प्रभावित होता है। वह शक्ति निर्माणात्मक और विध्वंसात्मक दोनों रूपों में विद्यमान है। यह प्रयोक्ता पर निर्भर है कि वह कैसा प्रयोग करता है। विद्वेष, उच्चाटन, वशीकरण सम्मोहात्मक आदि सभी प्रकार की शक्तियां शब्दों में निहित हैं और यह भी स्पष्ट है कि जो शब्द शक्ति के द्वारा दूसरों का अहित तथा अनिष्ट करता है, अन्ततोगत्वा वह स्वयं के महापतन का पथ तैयार करता है। इसलिए प्रशस्त साधकों को इनसे बचने की सूचना सर्वप्रथम दी जाती है। मानसिक पवित्रता साधना की आधारभूमि है। इसके अभाव में जीवन की उलझनें न्यून नहीं होती और साधक के उत्पथ पर जाने की सम्भावना भी नकारी नहीं जाती। मन्त्र-ग्रहण के लिए यह भी आवश्यक है कि वह किसी मन्त्र-विशेषज्ञ गुरु के द्वारा प्रदत्त होना चाहिए। मन्त्र के चुनाव में अनेक शत्रु, मित्र आदि तथ्यों का दर्शन किया जाता है, अन्यथा वह सफल नहीं होता। कुछ मन्त्र जैसे-'सोह, ॐ, नमस्कार मन्त्र आदि अपवाद होते हैं। वे सभी के लिए ग्राह्य हैं। किन्तु उनकी सम्यक् विधि और प्रयोग का प्रशिक्षण अपेक्षित है। सम्यक् प्रशिक्षण के अभाव में भी मन्त्र का कार्य असफल देखा जाता है। मंत्र और योग-मन्त्र और योग परस्पर सम्बन्धित है। योग चित्तवृत्ति का निरोध तथा एकाग्रता है । एकाग्रता के बिना मन्त्र का उच्चारण व्यर्थ चला जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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