Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 494
________________ परिशिष्ट-१ : ४३१ सी है ? बड़ा गहरा उत्तर था ह्वाकुजू का कि 'मैं' अकेला जो यहां बैठा हूं मेरे साथ बस यही घटना है। महर्षि रमण ने कहा है--विचारों को रोक दो और फिर मुझे बताओ कि मन कहां है ? किसी ने पूछा महषि रमण से कि ईश्वर के दर्शन कैसे हो सकते हैं ? नहीं, नहीं ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते लेकिन चाहो तो स्वयं ईश्वर हो सकते हो। ईश्वर के दर्शन से पूर्व स्वयं ईश्वर जैसी तैयारी करनी होती है। जिसने स्वयं के भीतर ईश्वर को पा लिया हो, उसके लिए ईश्वर कहां नहीं है और जिसे स्वयं के भीतर ईश्वर नहीं मिला, उसके लिए बाहर कहां सम्भव है। ___ ध्यान केवल शुद्ध समय है। समयसार में समय का अर्थ आत्मा किया है। समयसार अर्थात् आत्मसार । वर्तमान क्षण में ही आत्मा है । अतीत और भविष्य में आत्मा का अनुभव नहीं होता। जे० कृष्णमूर्ति कहते हैं-ध्यान समय से आगे की क्रिया है । ध्यान में कल्पना और विचार का स्थान नहीं है। ध्यान समय से मुक्ति है। देखने वाला (द्रष्टा), अनुभव और विचार करने वाला समय है और जो समय है वह विचार है। 'शुद्ध व्यान-निश्चयात्मक ध्यान में सिर्फ अस्तित्व है और वह काल का सूक्ष्मतम क्षण एक समय है। एक साधु ने किसी से पूछा-व्यान क्या है ? सन्त ने कहा जो निकट है उसमें - होना ध्यान है । जब मैं कहीं भी नहीं होता हूं तब स्वयं में होता हूं। जैन साधक लिची अपने गुरु के पास जाकर पूछते हैं कि मैं अपने मन को कैसे बनाऊं ताकि सत्य को जान सकूँ ? गुरु हंसे और बोले, तुम कैसा भी अपने मन को बनाओ सत्य को नहीं जान सकोगे। बड़ी अभीप्सा लेकर आया था वह। यह सुन कर मन को चोट पहुंची और पूछा कि सत्य को नहीं जान सकूँगा ? गुरु ने कहायह मैंने नहीं कहा कि तुम सत्य को नहीं जान सकोगे। लेकिन तुम मन से नहीं जान सकोगे। सत्य को जानना है तो मन को दूर छोड़ दो, मन से मुक्त हो जाओ। महान योगी साधक श्रीमद राजचन्द्र ने आत्म-दर्शन की प्रक्रिया इन शब्दों में प्रस्तुत की है-'यह आत्मा वर्तमान शरीरप्रमाण है । शरीर में स्थिति होते हुए भी शरीर से पृथक् है, पुरुषाकार है, चिन्मय है, ऐसा समझ कर देखे तो उसका दर्शन होता है। 'इन्द्रियों का निरोध कर, श्वास को शांत कर, मन को संयमित कर तथा आंखें बन्द कर सुज्ञान नेत्र द्वारा देखने से यह आत्मा प्रत्यक्ष होती है। उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि निर्विचार, निरालम्बन ध्यान ही एक मात्र ध्यान है। सालम्बन निरालम्बन से संयुक्त होने के कारण वह भी अमान्य नहीं है किन्तु ध्येय शुद्ध आत्मा है। साधक की दृष्टि से ध्येय विस्मृत नहीं होना चाहिए । यह सर्वदा आंखों के सामने तैरता रहे। सालम्बन से निरालम्बन की यात्रा पर उसे निकलना है। निरालम्बन या निश्चयात्मक ध्यान पर पहुंचने के लिए कुछ प्रयोग हैं, जिनके माध्यम से सहजतया वह यात्रा सम्पन्न की जा सकती है । आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ध्यानशास्त्र ज्ञानार्णव में एकमात्र मनोजय-मन-शुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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