________________
४१२ : सम्बोधि
तीव्र भाव | मुमुक्षा के अभाव में ध्यान का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । दुःख - मुक्ति, पूर्ण स्वातन्त्य ध्यान का कार्य है । बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा- भिक्षुओ ! दूसरे प्रश्नों में मत उलझो, दुःख से मुक्त होना क्या कम है ? उस तीर लगे व्यक्ति की तरह व्यर्थं मूर्खता नहीं करना । किसी व्यक्ति के शरीर में तीर लग गया । कराह रहा है । कोई आदमी निकालने के लिए आया, तब कहा – ठहरो, पहले मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दो। यह तीर किस दिशा से आया है ? किसने बनाया है ? किसका है ? विषयुक्त है या निर्विष ? वह समझदार था । उसने कहा - भले आदमी ! ये प्रश्न पीछे भी पूछे जा सकते हैं । पहले इसे निकलवा लो ।
--
मुमुक्षा के साथ-साथ स्वस्थ शरीर की आवश्यकता है । " नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः" - दुर्बल व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध नहीं हो सकता । महावीर ने कहा है- 'शरीरमाहु नावत्ति' संसार-सागर को पार करना है तो जीर्ण-शीर्ण नौका से काम नहीं चल सकता | नाव मजबूत चाहिए। शरीर नाव है । जितेन्द्रियता, शान्तचित्तता, स्थिरासन, मनोजयत्व आदि गुण भी ध्याता के लिए अनिवार्य है ।
गृहस्थ या मुनि, कोई भी व्यक्ति हो यदि उपरोक्त गुणों से सम्पन्न न हो तो ध्यान का मार्ग उसके लिए अशक्य है । स्वामी रामकृष्ण ने अपने गहरे अनुभवों से कहा है - गृहस्थ में रहते हुए ईश्वर की प्राप्ति करना कठिन है। ईश्वर की प्राप्ति के बाद कहीं भी रहा जा सकता है, कोई कठिनाई पैदा नहीं होती । प्रारम्भ में तो समय-समय पर महीने दो महीने, वर्ष, छह महीने उसे सर्वथा गृहस्थ जीवन से मुक्त होकर एकान्त में तीव्र भावना के साथ ईश्वर को पुकारना चाहिए ।
जीसस ने कहा है – ' द्वार खटखटाओ, अवश्य खुलेगा ।' 'ईश्वर पुकार सुनेगा | आचार्य शुभचन्द्र ने गृहस्थ जीवन में विशिष्ट ध्यान की संभाव्यता का बड़ा सचोट शब्दों में निषेध किया है । वे कहते हैं- आकाश में पुष्प और गधे के
की किसी तरह संभाव्यता स्वीकार की जा सकती है, किन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि किसी भी देश तथा काल में सम्भव नहीं है।' इसके अनेक कारण प्रस्तुत किए हैं
(१) सतत स्त्रियों का सम्पर्क रहता है । (२) व्यक्ति इन्द्रिय विषयों में वर्तता है । (३) आजीविका आदि की चिन्ता रहती है । (४) प्रमाद - जागरुकता का अभाव है । (५) मोह-ममत्व से घिरा रहता है । (६) जीवन क्लेश और कष्ट - बहुल होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org