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परिशिष्ट-१
योग : क्या और कैसे
ग : एक अनुचिन्तन
जैन साहित्य में योग शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। मुख्यतया योग शब्द मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति के अर्थ में प्रचलित है। योगदर्शन का उद्देश्य भी मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों का संयमन है। इस दृष्टि से वहां भी यदि उसका अर्थ वही ग्रहण करें तो कोई आपत्ति नहीं होती। "जोगं च समणधर्म जुंजे अनलसो धुवंम्मि"-साधक आलस्य को त्यागकर सतत अपने योग (मनःवाक् और शरीर की प्रवृत्ति) को समत्व-साधना, श्रमण-धर्म में योजित करें। यह कथन भी किसी न किसी विधि का सूचक है।
जैन आचार्यों ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र को योग कहा है। योग शब्द का प्रतिपाद्य और प्राप्य जो है वह दर्शन, ज्ञान और चरित्र ही है। जीवन की परिपूर्ण विकसित अवस्था इस त्रिवेणी का संयोग है। ऐसी कोई साधना-पद्धति नहीं है जो अज्ञान, मिथ्यात्व और आचरण को रूपान्तरित न करे। जिस साधना से व्यक्ति जैसा था वैसा ही रहता है तो समझना चाहिए कि कहीं भूल है। समस्त साधनामार्ग उसी दिशा में ले जाते हैं।
तप है योग ___ योग शब्द के द्वारा जो विधेय है, जैन परम्परा में वह तप के द्वारा लक्ष्य है। योग के स्थान पर 'तप' शब्द अधिक प्रचलित रहा है। योग के जैसे आठ अंग हैं, वैसे तप के द्वादश भेद हैं । यह शब्द स्वयं महावीर द्वारा प्रयुक्त है। 'तवसा परिसुज्झई-तप से शुद्धि होती है,कर्मों का निर्जरण होता है । जैन-साहित्य से जिनका यत्किंचित् परिचय है वे इसे सहजतया समझते हैं। अनेक स्थलों पर आगम और आगमेतर साहित्य में इसकी विशद चर्चा उपलब्ध है। निःसन्देह यह साधना-पद्धति के रूप में प्रचलित रहा है। कालान्तर में संभवतया वह पद्धति विस्मृत हो गई और उसके भेद-प्रभेद रह गए। प्रयोग छूट गया। प्रयोग के बिना किसी भी चीज का महत्व नहीं रहता। वह केवल रूढ़ हो जाती है। __ आज व्यक्ति तप के समस्त अंगों की साधना न कर केवल दो-चार पूर्ववर्ती अंगों को अपनाकर तपस्वी या धार्मिकता का गौरव प्राप्त करते हैं। तप शब्द
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