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३९६ : सम्बोधि
वाणी और काया के तपों का स्पष्ट दिग् दर्शन कराया है। पूज्य व्यक्तियों का पूजन, 'पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य, और अहिंसा 'शरीर' तप है। किसी को उद्विग्न न करने वाले सत्य, प्रिय और हितकर वचन बोलना, आध्यात्मिक शास्त्रों का अध्ययन करना वाक्मय तप है । चित्त को सदा प्रसन्न रखना, सौम्य, मौन और आत्म'निग्रह करना 'मानस' तप है ।' भूख-प्यास आदि पर उपवास - व्रत द्वारा विजय प्राप्त कर शरीर को साधना के अनुकूल बनाना तप है। इस प्रकार तप की अस्वीकृति का दर्शन कहीं नहीं है । तप का भयावह चित्र या निरादर जो सामने आया है, वह अविवेक के कारण आया है । तप के साथ विवेक रहता है तो निःसन्देह तप श्रद्धेय और समाचारणीय बनता है । बुद्ध ने तप की अति का वर्जन किया है, तब का नहीं। गीता में 'युक्ताहार विहारस्य' कह कर सर्वत्र विवेक का स्वर प्रकटित किया है । महावीर को भी तप अतिप्रिय नहीं था । उन्होंने स्पष्ट किया है - 'प्रत्येक कार्य में साधक सबसे पहले अपने शरीर बल, मनोबल, श्रद्धा, आरोग्य, क्षेत्र और काल - समय का यथोचित परिज्ञान कर फिर स्वयं को तप में नियोजित करें ।' तप के साथ अगर इतना गहरा जागरण होता तो वह क्रमशः अनेक ग्रन्थियों का उद्"घाटन करता और अध्यात्मिक दिशा में एक नया कीर्तिमान स्थापित करता ।
तप दुःख नहीं, आनन्द का कारण है । जिससे शुद्धि हो, आवरण छिन्न हो, उसमें अनानन्द का प्रश्न ही खड़ा नहीं हो सकता । वह उन लोगों के लिए दुःखद हो सकता है जिन्हें शुद्धि का बोध नहीं है । किन्तु इससे पूर्व शरीर और चेतना का "भेद - विज्ञान अत्यन्त अपेक्षित है। ज्ञान, दर्शन और तप तीनों की संयुति है । एक के
अभाव में पूर्णता कहीं नहीं होती । आचार्य ने स्पष्ट सूचना दी है कि तप रहित ज्ञान • और ज्ञान रहित तप कृतार्थ नहीं होते चाहे व्यक्ति कितना ही महान् तप का आचारण करे । यदि तप भेद - विज्ञान से शून्य है तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता । • समस्त शास्त्रों का पारायण संयम का पालन और तप का सेबन भले करो किन्तु जब तक आत्म-दर्शन नहीं होता, तब तक मोक्ष नहीं है । समत्व के अभाव में बनवास, कायक्लेश विचित्र प्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि आचरण क्या करेंगे ?" इससे यह स्पष्ट होता है कि जीवन में ज्ञान की आराधना, दर्शन की आराधना और चारित्र की आराधना ये तीनों अनिवार्य हैं। इनमें भी सम्यग् दर्शन प्रमुख है । जो प्रमुख है उसे गौण न बनायें । प्रमुख के साथ ही 'तप' सोने में सुगन्ध का काम करेगा । तप से बल बढ़ता है । तप संवर और निर्जरा का हेतु है । तप शनैः शनैः विषयों से वितृष्णा पैदाकर मुक्ति को सन्निकट करता है । महावीर के तप का सर्वांगीण अवलोकन कर हम समझ सकेंगे कि इसका इतना महत्व क्यों है ?
-तप : बाह्य और अभ्यान्तर
तप को महावीर ने योग की तरह दो भागों में विभक्त किया है, बाह्य तप
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