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परिशिष्ट १ : ३६.५
I
भिक्षुओं ने बुद्ध से कहा । बुद्ध श्रोण के पास आये और बोले—श्रोण ! तुम कुशल पावादक थे 'हां भन्ते ।'
वीणा बजाने के नियम से परिचित हो ?
हां भन्ते ।
4
तार बिलकुल ढीले होते हैं तब वीणा बजती है ?
नहीं ।
श्रोण ! वीणा के तार बहुत कसे हुए होते हैं, तब वीणा बजती है । 'नहीं भन्ते ।'
श्रोण ! वही नियम साधना का है ।'
तप का यथार्थ रूप
तप क्या है ? तप अग्नि है । अग्नि का स्वभाव है जलाता, ऊपर उठना और - आकाश में व्याप्त हो जाता है। उप्र का काम भी यही है। वह भीतर जो विजातीय तत्त्व एकत्रित हो गया है, उसे जला डालता है । मल-आवरण के जल जाने पर चेतना का ऊकारोहण होता है और अन्त में साधक अपने विद्यालय में समाहित हो जाता है । जीवनीशक्ति प्रतिक्षण दूसरों में उत्सुक होकर बाहर बह रही है, उसे रोकने की कला तम है । तप किया और चेतना का अतिक्रमण नहीं हुआ, वह स्वयं को पाने उत्सुक नहीं हुई तो समझाना चाहिए कि तप का प्रयोजन सफल नहीं हुआ | आचार्य हेमचन्द्र ने उस उपवास को लंघन कहा है जिसमें कषाय (कोश,
हंकार, माया, कपट और लोभ) तथा इन्द्रिय विषय का त्याग न कर केवल आहार का त्याग किया जाता है। भोजन को छोड़कर चेतना को ऊपर उठाना है. उसे सब तरफ से समेट कर अस्तित्व की दिशा में प्रवाहित करता है । ऊर्जा का स्रोत बाहर जाने से बन्द होगा तब एक नया उत्ताप पैदा होगा । ब्रही तम अशुद्धि को जलाकर एक नकी शक्ति से जीवन को भरेगा । महावीर का वास्तविक तप यही है । वे चाहते हैं कि ऊर्जा अपने भीतर ठहर जाये । इसीलिए उन्होंने यह तिम्रा दी । तप शब्द से भले ही कोई घबराये, किन्तु सब धर्मो में यह स्वीकृत है । मारे धर्म इस बात में एक है कि चेतना बाहर प्रवाहित न हो । कोलवा का अन्तमुखी जो प्रवाह है वह तप है। इसे स्वीकार करने में कोई अम्पत्ति नहीं आ सकती इसलिए प्रत्यक्ष और परप्रेक्ष रूप से 'सपोयोग' में सभी धर्म सहमत हैं ।
तप का विवेक
महर्षि पतञ्जलि ने कहा है- तप से शरीर और इन्द्रियों की अशुद्धि क्षीण होने से देह और इन्द्रियों की सिद्धि उत्पन्न होती है ।' गीता में श्रीकृष्ण ने मन,.
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