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परिशष्ट-१ : ४०१
५. स्वाध्याय की सिद्धि होती है।
ऊनोदरी--यह सांकेतिक शब्द है । इसे हम केवल भोजन से ही संबंधित न करें। भोजन स्थूल है। जहां भी जिस वस्तु में मात्रा का अतिक्रमण होता हो, वहां सर्वत्र संयम को साधना है। आसक्ति के प्रवाह को अमर्यादित नहीं होने देता है, तथा क्रोध, अहंकार आदि दोषों का भी नियमन करता है। (३) वृत्तिसंक्षेप--
वृत्ति शब्द के दो अर्थ हैं—जीविका, और चैतसिक प्रवृत्तियां। योगशास्त्र चित्तवृत्ति के निरोध का दर्शन देता है। प्रमाद विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति-ये पांच वृत्तियां हैं। इनका संपूर्ण निरोध करना योग का चरम लक्ष्य है। वृत्तियों के कारण चित्त शुद्ध नहीं रहता। अशुद्ध चित्त में परमात्मा का अवतरण नहीं होता।
वृत्तिसंक्षेप का अर्थ है—जीविका-निर्वाह (भोजन) को विविध संकल्पों से संक्षिप्त करना । जैसे- अमुक पदार्थ मिले तो आहार करना, अमुक व्यक्ति दे तो लेना, आदि। महावीर का संकल्प प्रसिद्ध है। उन्होंने निर्णय किया किअगर छह महीनों के भीतर संकल्प पूरा हो तो भोजन करना, अन्यथा छह महीने तक भोजन नहीं करना। भिक्षा के लिए रोज घूमते। पांच महीने पच्चीस दिन पूरे हो गये । संकल्प नहीं फला। छबीसवें दिन सब संयोग मिलने पर प्रतिज्ञा पूर्ण हुई और तब आहार ग्रहण किया। (४) रस-परित्याग___महावीर ने कहा है-साधक को वैसे रसों-पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए, जो काम-वासना को उद्दिप्त करने वाले हों। साधक ने काम-वासना के विजय के लिए प्रस्थान किया है। चेतना की प्रगति के लिए निकला हुआ साधक चेतना के विकास में बाधक तत्वों का आसेवन करे, यह लक्ष्य के निकट पहुंचने की स्थिति नहीं है। निःसन्देह वे उसे दूर ले जाते हैं। रसों के निषेध करने का तात्पर्य यही है कि चित्त बहिर्म खी न हो।
रस शब्द से यहां वे समस्त पदार्थ ग्राह्य हैं जिनसे वृत्तियां चंचल होती हैं, चित्त अन्तर्मुखता से हटता है, ध्यान 'स्व' पर केन्द्रित न होकर 'पर' की तरफ आकृष्ट होता है। इससे समग्र इन्द्रियों के रसों-विषयों की प्रतिध्वनि अभिव्यक्त होती है । किन्तु रसना--जीभ सब में मुख्य है, इसलिए उसी का मुख्यतः उल्लेख किया जाता है। धवला टीका में लिखा है-"रसनेन्द्रिय के निरोध से सकल इन्द्रियों का निरोध संभव है।" ____ मूलाराधना में आचार्य वट्टकेर कहते हैं-'प्राणी इस अनादि संसार-प्रवाह में रसनेन्द्रिय और उपस्थ के कारण महान् दुःख और जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
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