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अध्याय १५ : ३५३
प्रयोग किया तथा बहुत बुरा-भला कहा।
(४) सिंधु देश में वीतभयपुर का शासक राजा उदाई था । अभीचि कुमार उसका पुत्र था । राजा धार्मिक प्रवृत्ति का और श्रमणोपासक था। एक दिन अपने साधना कक्ष में अवस्थित राजा धर्म जागरण में दिन रात के एक-एक क्षण यापन कर रहा था। जीवन के परम लक्ष्य के प्रति अगाध निष्ठा और उसे संप्राप्त करने की अदम्य भावना बढ़ रही थी। मन ही मन में सोचा-यदि भगवान महावीर का यहां आगमन हो जाए तो मैं अपने लक्ष्य के लिए उनके चरणों में पूर्णतया सब कुछ त्याग कर समर्पित हो जाऊं। राजा के इस दृढ़ निश्चय को भगवान ने जाना और उनके चरण वीतभय नगर की दिशा में बढ़ चले। लम्बी दूरी तय कर भगवान महावीर आ पहुंचे। राजा को संदेश मिला। प्रसन्नता का सागर हिलोरें मारने लगा। वाणी सुनी और निश्चय अभिव्यक्त किया।
राज्य के कार्यभार का वाहक अभीचि कुमार था। वह सर्वथा योग्य था किंतु सम्राट उदाई ने उसे राज्य न देकर अपने भानजे केशिकुमार को दिया। इस घोषणा से सबको बड़ा आघात लगा। अभिचि कुमार भी सन्न रह गया। अपने पिता की भावना को समझ नहीं सका । वे चाहते थे कि पुत्र राज्य-भार में आसक्त . होकर स्वयं को न भूले। किंतु यह सब व्यक्ति के विचारों पर निर्भर होता है। पुत्र की इच्छा का सम्मान न कर अपनी भावना को थोपना हितकर नहीं होता। राजा ने किसी की नहीं सुनी और यह कहकर कि मैंने उचित किया है दीक्षा स्वीकार कर ली।
अभीचि कुमार नगर छोड़कर चम्पा नगरी में कोणिक राजा के पास चला आया । धार्मिक था। धर्माचरण भी बराबर करता था । धार्मिक पर्यों में पूर्णतया धर्माराधन कर सबसे क्षमायाचना करता था अपने पिता को छोड़कर। उदायी नाम से उसके मन में घृणा हो चुकी थी। पिता द्वारा कृत कार्य का स्मरण कर वैराग्नि हृदय में प्रज्वलित हो उठती थी। क्रोध की जड़ें अन्तःकरण में इतनी गहरी जम चुकी थी कि वे किसी तरह उखड़ नहीं पाती थीं। जैसे दुर्योधन ने कहा था कि मैं धर्म को भी जानता हूं और अधर्म को भी। किंतु धर्म में प्रवृत्त नहीं होता और अधर्म को छोड़ नहीं पाता। मेरे भीतर जो आसुरी भाव है, वह मुझे जैसे नियुक्त करता है वैसा ही करता हूं।
(५) संमोही भावना-जमालि भगवान महावीर का दामाद था। भगवान महावीर के पास पांच सौ व्यक्तियों के साथ दीक्षित हुआ । ज्ञान, दर्शन, चरित्र की साधना में स्वयं को समर्पित किया। श्रुतसागर का पारगामी बना। तपः साधना भी दुर्घर्ष थी।
एक दिन वह भगवान महावीर के पास आया। वंदना की और बोला'भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा पाकर पांच सौ निर्ग्रन्थों के साथ जनपद विहार करना
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