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अध्याय १६ : ३६६
पादयुग्मञ्च संहृत्य, प्रसारितभुजोभयः।
ईषन्नतः स्थिरदृष्टिर्लप्स्यसे मनसो धृतिम् ॥६॥ ६. दोनों पैरों को सटाकर, दोनों भुजाओं को फैलाकर, थोड़ा झुककर तथा दृष्टि को स्थिर बना, इस प्रकार मानसिक धैर्य प्राप्त होगा।
ध्यान के लिए चार मुद्राओं का उल्लेख मिलता है
१. जिन मुद्रा, २. योग मुद्रा, ३. वंदना मुद्रा, ४. मुक्ता-शुक्ति मुद्रा । १ जिन मुद्रा
दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर, हाथ सीधे जंघाओं को स्पर्श करते हुए, थोड़ा झुककर, दृष्टि को स्थिर कर नासाग्र दर्शन करते रहना । चित्त को स्थिर और एकाग्न करना मुद्राओं का प्रयोजन है। इससे कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास होता है, साधक की मानसिक धृति बढ़ती है।
प्रयत्नं नाधिकुर्वाणोऽलब्धांश्च विषयान् प्रति । लब्धान्प्रतिविरज्यंश्च, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि ॥१०॥
१०. अप्राप्त विषयों पर अधिकार करने का प्रयत्न मत कर और प्राप्त विषयों से विरक्त बन, इस प्रकार तुझे मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होगा।
'बलख' का बादशाह इब्राहिम साम्राज्य को छोड़ कर फकीर हो गया। वह फकीरी के वेष में भारत-यात्रा पर आया। एक संत से भेंट हुई। उसने पूछासन्त कौन होता है ? सन्त ने कहा-मिले तो खा ले और ना मिले तो सन्तोष रखे । इब्राहीम ने कहा-यह तो कोई बहुत बड़ा लक्षण नहीं है । इतना तो एक कुत्ता भी कर लेता है । सन्त ने कहा-तो आप बताएं। उसने कहा-जो कुछ (ज्ञान,प्रेम) मिले उसे बांट कर खाएं और न मिले तो समझे चलो आज उपवास व्रत ही सही । प्राप्त में सन्तोष और अप्राप्त का आकर्षण नहीं रखना शान्ति का सहज उपाय है। सन्तोष वही नहीं कि आप के पास है भी नहीं, और आप उसका संतोष करें। सन्तोष भविष्य में नहीं, वर्तमान में है। सन्तुष्ट आप आज रह सकते हैं, कल में नहीं। कल अशान्ति का लक्षण है। महावीर कहते हैं-अप्राप्त-पदार्थों को प्राप्त
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