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३८२ : सम्बोधि
'मनस्येकं वचस्येकं, कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यद् वचस्यन्यत्, कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।' -मन वचन और कर्म में एकरूपता-यह महान् पुरुषों का लक्षण है, और . भिन्नता साधारण पुरुषों का लक्षण है। साधक के लिए साधना का महान् सूत्र है कि वह जैसा कहे, वैसा करे और जैसा करे, वैसा ही कहे। अनेकरूपता साधक का धर्म नहीं होता। जिसमें भीतर और बाहर का एकत्व नहीं है, वह साधना के योग्य नहीं है।
अश्रद्धानं प्रवचने, परलाभस्य तर्कणम् । आशंसनं च कामानां, स्नानादिप्रार्थनं तथा ॥३२॥ एतैश्च हेतुभिश्चित्तमुच्चावचं प्रधारयन्। निर्ग्रन्थो घातमाप्नोति, दुःखशय्यां व्रजत्यपि ॥३३॥
३२-३३. मुनि के लिए चार दुःख शय्याएं बताई गई हैं :
१. निर्ग्रन्थ प्रवचन में अश्रद्धा करना । २. दूसरे श्रमणों द्वारा भिक्षा की चाह रखना। ३. काम-भोगों की इच्छा रखना।
४. स्नान आदि की अभिलाषा करना। इन कारणों से साधु का चित्त अस्थिर बनता है और वह संयम को हानि को प्राप्त होता है, अतः निर्ग्रन्थ के लिए यह चार दुःख शय्याएं हैं।
श्रद्धाशीलः प्रवचने, स्वलाभे तोषमाश्रितः। अनाशंसा च कामानां, स्नानाद्यप्रार्थनं तथा ॥३४॥ एतैश्च हेतुभिश्चित्तमुच्चावचमधारयन् । निर्ग्रन्थो मुक्तिमाप्नोति, सुखशय्यां व्रजत्यपि ॥३५।।
३४-३.५. मुनि के लिए चार सुख-शय्याएं बतलाई गई हैं :
१. निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करना। २. भिक्षा में जो वस्तुएं प्राप्त हों उन्हीं से सन्तुष्ट रहना। ३. काम-भोगों की इच्छा न करना।
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