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३८४ : सम्बोधि
पूर्वं कुग्राहिताः केचिद्, बालाः पण्डितमानिनः । नेच्छन्ति कारणं श्रोतुं, द्वीपजाता यथा नराः॥३७॥
३७. जो पूर्वाग्रह रखते हैं और जो अज्ञानी होने पर भी अपने को पंडित मानते हैं, वे अशिष्ट पुरुषों की भांति बोधि के कारण को सुनना नहीं चाहते।
विकास के क्षेत्र में पूर्व-मान्यता या पूर्वाग्रह का स्थान नहीं है। पूर्वाग्रही व्यक्ति के लिए सत्य-स्वीकृति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। उसे वही सत्य लगता है जो अपनी मान्यता पर खरा उतरता है। ऐसे व्यक्ति के लिए किसी ने कहा है-ये कुआं मेरे पिता का बनाया हुआ है। मैं इसीका पानी पीऊंगा। भले इस में पानी खारा भी है। वे सम्यग् ज्ञान का उपदेश सुनना नहीं चाहते । अगर सुन भी लेते हैं तो उनके दिमाग में उसे प्रवेश नहीं मिल सकता। क्योंकि उनका दिमाग पहले से भरा रहता है। जब हम अपने दिमाग को रिक्त कर लेते हैं तब उसमें किसी अन्य शिक्षा का प्रवेश हो सकता है। भगवान् महावीर ने मेघ से कहामेघ ! पंडित-मन्यता और पूर्वाग्रह-इन दोनों से मुक्त होने पर ही सत्य का मार्ग अनावृत हो सकता है।
एक बार दो चींटियां आपस में मिलीं। एक नमक के पहाड़ पर रहती थी और दूसरी चीनी के पहाड़ पर। चीनी के पहाड़ पर रहने रहने वाली चींटी ने दूसरी चींटी को आमंत्रित किया। नमक के पहाड़ पर रहने वाली चींटी वहां गई और एक दाना चीनी का मुंह में लिया। उसने थूकते हुए कहा-'अरे, यह भी खारा है।' वहां की निवासिनी चींटी ने कहा- 'बहन ! चीनी मीठी होती है । वह कभी खारी नहीं होती।' आगन्तुक चींटी ने कहा- 'मेरा मुंह तो खारा हो गया है। मैं कैसे मानूं कि चीनी मीठी होती है !' यह सुनकर वह असमंजस में पड़ गई। उसने आगन्तुक चींटी का मुंह देखा। उसमें नमक की एक डली थी। उसने कहा'बहन ! नमक को छोड़े बिना मुंह मीठा कैसे होगा?' यह संस्कारों के आग्रह की कहानी है। आग्रह को छोड़े बिना सत्य प्राप्त नहीं किया जा सकता।
उपदेशमिदं श्रत्वा. प्रसन्नात्मा महामनाः । मेघः प्रसन्नया वाचा, तुष्टुवे परमेष्ठिनम् ॥३८॥
३८. महामना मेघ यह उपदेश सुन बहुत प्रसन्न हुआ और बड़ी प्रांजल वाणी से भगवान् महावीर की स्तुति करने लगा।
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