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अध्याय १६ : ३८७
हैं, अचल हैं, अक्षय हैं, अनन्त हैं, धर्म का दान करने वाले हैं और - रथ के साथ हैं ।
जिनच जपकरवास, तीर्णस्तथासि तारकः । बुद्धश्च बोधकश्चासि, मुक्तस्तथासि मोचकः ॥४७॥
४७. प्रभो! आप आत्म-जेता हैं और दूसरों को विजयी बनाने वाले हैं। स्वयं संसार सागर से तर गए हैं, दूसरों को उससे तारने वाले हैं । आप बुद्ध हैं, दूसरों को बोधि देने वाले हैं । स्वयं मुक्त हैं, दूसरों को मुक्त करने वाले हैं ।
इस संसार में सबसे अलभ्य घटना है— शिष्य होना । किसी ने सत्य कहा है एक चीज ऐसी हैं जिसके देने वाले बहुत हैं और लेने वाले कम। वह है— उपदेश । सब गुरु बनना चाहते हैं, शिष्य नहीं। शिष्य वह होता है जिसमें सीखने की उत्कट अभिलाषा हो । 'इजिप्त' में कहावत है- 'जब शिष्य तैयार होता है तो गुरु मौजूद हो जाता है। गुरु की उपलब्धि भी सहज-सरल नहीं है । जब शिष्य ही न हो तो गुरु का मिलना कैसे संभव हो ? शिष्य कैसे गुरु की खोज करे ? उसमें यदि इतनी योग्यता हो तो फिर वह गुरु से भी ऊंचा हो जाता है। कहते हैं—गुरु ही शिष्य को खोजते हैं । वायजीद 'गुरु के पास वर्षों रहा। गुरु ने अनेक ऐसे अवसर दिए कि श्रद्धा प्रकम्पित हो जाए । अनेक शिष्य चले गए किन्तु वायजीद स्थिर रहा। साधना पूरी हो गईं। गुरु ने कहाँ मेरी संबंध में कुछ पूछना है । वायजिद हंसा और बोला- वह सब नाटक था। मुझे अपने काम की जरूरत थी ।
फेंकन ने कहा है— सर्वोत्तम गुरु वह है जो आपको आत्म-परिचय कराने के लिए आपका पथ-दर्शन करे। गुरु बांधना नहीं चाहते, वे चाहते हैं मुक्त करना । जापान के आश्रम में जब कोई शिष्यं सीखने आता है तो गुरु उसे मार्ग-दर्शन दे देते और कहते --- ' यह चटाई है, आना, इस पर बैठकर अपना काम करना और जिस दिन कार्य पूर्ण हो जाएं चटाई को गोल कर चले जाना । मैं समझ लूंगा कि 'काम हो गया है ।' धन्यवाद की भी आकांक्षा नहीं रखते। शिष्य कैसे उस कृतज्ञता की भूल सकता है। गुरु लेन-देन, व्यवसाय की बात नहीं चाहते । किन्तु शिष्य की स्वर मुखरित हुए बिना कैसे रह सकता है ?
कुछ कहा है, वह यहीं स्वर हैं । महावीर ने कह दिया -- मुझे भी मत पकड़ना । मेरे साथ भी स्नेह मत करना, अन्यथा यात्रा बीच में रह जाएगी।
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