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अध्याय १६ : ३६५
है। यह क्षणिक है। आया और गया। इसमें स्थिरता नहीं है। मन एक क्षण में प्रसन्न होता है और एक क्षण में अप्रसन्न । एक क्षण सुखी होता है और दूसरे क्षण दुःखी। मुझे वह प्रसाद सुख चाहिए जो स्थायी हो, शाश्वत हो। आचार्य विनयविजयजी ने कहा है-यदि तुम्हारा मन संसार-भ्रमण के दुःख से ऊब गया हो
और अनन्त आनन्द की प्यास तीव्र हो गई हो तो तुम अमृत रस से भरे हुए इस शान्त सुधारस काव्य को सुनो।' सुख में पले-पुषे मेघ का मन संसार से उद्विग्न हो उठा और सुख और दुःख दोनों से परे जो प्रसाद-आनन्द है उसके लिए बेचैन हो; उठा । यह प्रश्न उसकी पात्रता को व्यक्त करता है।
भगवान् प्राह
अनन्तानन्दसम्पूर्ण, आत्मा भवति देहिनाम् । तच्चित्तस्तन्मना मेघ !, तदध्यवसितो भव ॥२॥
२. भगवान् ने कहा—आत्मा अनन्त आनन्द से परिपूर्ण है ।। मेघ ! तू उसी में चित्त को रमा, उसी में मन को लगा और उसी में अध्यवसाय को संजोए रख ।
मन की तीन अवस्थाएं हैं-चित्त, मन और अध्यवसाय। चित्त ज्ञानात्मक अवस्था है। ज्ञान के अनन्तर मनन-अभ्यासात्मक अवस्था मन है और अभ्यास की चिरपरिचित अवस्था अध्यवसाय है।
आनन्द का स्रोत बाहर नहीं है। हमारी आत्मा ही अनन्त-आनन्द से संपन्न है। चित्त, मन और अध्यवसाय जब आत्मोन्मुख होते हैं तब आनन्द का उद्भव होता हैं। जब वे बाहर घूमते हैं तब आनन्द का आभास हो सकता है किन्तु यथार्थ आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। आनन्द या मानसिक प्रसन्नता के लिए इनका आत्मा में विलीन होना आवश्यक है।
तद्भावनाभावितश्च, तदर्थ विहितार्पणः ।
भुजानोऽपि च कुर्वाणस्तिष्ठन् गच्छंस्तथा वदन ॥३॥ ३. मेघ ! जब-जब तू खाए, कार्य करे, ठहरे, चले और बोले,. तब-तब आत्म भावना से भावित बन और आत्मा के लिए सब कुछ, समर्पित किए रह।
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