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अध्याय १२ : २६१
आत्मोपलब्ध्ये जीवानां, भावनालम्बनं महत् । तेन नित्यं प्रकुर्वीत, भावनाभावितं मनः ॥५३॥
५३. आत्मा (आत्मस्वरूप) की उपलब्धि के लिए भावना महान् आलम्बन है, इसलिए मन को सदा भावनाओं से भावित करना चाहिए।
भावना-योग-शुद्धात्मा, जले नौरिव विद्यते। नौकेव तीर-सम्पन्नः, सर्व-दुःखाद्विमुच्यते ॥५४॥
५४. भावना-योग---अनित्य भावना से जिसकी आत्मा शुद्ध होती है, वह जल में नाव की भांति होता है। जैसे नाव किनारे पर पहुंचती है वैसे ही वह सब दुःखों से मुक्त होता है, उनका पार पा जाता है।
भवेदास्रविणी नौका, न सा पारस्य गामिनी। या निरास्त्रविणी नौका, सा तु पारस्य गामिनी ॥५५॥
५५. जो नाव आस्रविणी है-छेदवाली है, वह समुद्र के उस पार नहीं पहुंच पाती और जो निरास्रविणी है-छेद-रहित है, वह समुद्र के उस पार चली जाती है।
भावना-भावना का एक अर्थ होता है-वासना या संस्कार। मनुष्य का जीवन अनन्त जन्मों की वासना का परिणाम है। व्यक्ति जैसी भावना रखता है वह वैसा ही बन जाता है। मनुष्य जो कुछ कर रहा है-वह सब भावना का पुनरावर्तन है। साधना का अर्थ है-एक नया संकल्प या सत्य की दिशा में अभिनव भावना का अभ्यास जिससे आत्म-विमुख भावना के मन्दिर को तोड़कर आत्माभिमुखी भावना द्वारा नये भवन का निर्माण करना। किन्तु यह एक दूसरी अति न हो जाए, जिसमें व्यक्ति अन्य भावना द्वारा पहले की तरह संमोहित हो जाए। इसलिए भावना का दूसरा अर्थ है-जिस भावना से अपने को संस्कारी बना रहे हैं, यान द्वारा उसे प्रत्यक्ष अनुभव करना। यदि केवल संकल्प को दोहराते चले
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