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अध्याय १४ : ३२१
जैन दर्शन में पन्द्रह प्रकार के कर्मादान और छब्बीस प्रकार के भोगोपभोग का वर्जन है। इनकी प्रवृत्ति में मर्यादा करना - - परिमाण करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है ।
कल्पनाभिः प्रमादेन, दण्डः प्रयुज्यते जनैः । अनर्थदण्ड - विरतिः कार्या धर्मस्पृशा विशा ॥ ३३ ॥
३३. मनुष्य अनेक प्रकार की कल्पनाओं व प्रमाद के वशीभूत होकर दण्ड (हिंसा) का प्रयोग करता है। धार्मिक पुरुष को अनर्थदण्ड ( अनावश्यक हिंसा ) से निवृत्त होना चाहिए।
धार्मिक व्यक्ति अनावश्यक हिंसा से बचता है। अनावश्यक हिंसा के कारण हैं—मिथ्या - कल्पना, प्रमाद और अविश्वास । शीत युद्ध स्पष्टता में नहीं होता । यह अस्पष्ट हृदय की देन है । कल्पनाओं के आधार पर किया गया निर्णय नब्बे प्रतिशत मिथ्या होता है। एक-दूसरे के प्रति व्यक्ति संदिग्ध हो जाता है । संदेह भय को जन्म देता है और प्रतिकार के प्रति सचेष्ट करता है । यहीं से द्वैध बढ़ता है । प्रमाद, असावधानी, आलस्य तमोगुणी व्यक्ति का लक्षण है । प्रमादी व्यक्ति अकारण ही हिंसा कर बैठता है । अपने प्रयोजन के लिए मनुष्य पाप-कर्म करता है, अधर्म - व्यापार करता है, यह स्वाभाविक है परन्तु बिना प्रयोजन, बिना स्वार्थ, व्यर्थ में अधर्म व्यापार करना, बुरे कार्य करना कहां तक उचित है ? बिना मतलब किसी पाप-कार्य में प्रवृत्ति न करना, प्रवृत्ति करने का त्याग करना अनर्थ- दण्डविरति व्रत है। गृहस्थ को अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ करना पड़ता है। आठवां व्रत हमें यह सिखाता है कि कम-से-कम अनर्थ पाप से तो बचें। बिना प्रयोजन चलते-फिरते किसी को मार डालना, गाली देना, झगड़ा करना, ईर्ष्या करना, द्वेष करना, वनस्पति को कुचलते हुए चलना, बत्ती को जलाकर छोड़ देना, घी- तेल के बर्तनों को खुला छोड़ देना इत्यादि ऐसे अनेक काम हैं जिनसे बचना या परहेज करना अहिंसा की दृष्टि से तो प्रशंसनीय है ही किन्तु व्यवहार-दृष्टि से भी अच्छा है।
दिग्विरति, भोगोपभोग विरति और अनर्थदंड विरति ये तीनों व्रत अणुव्रतों पोषक हैं, अतः इन्हें गुणव्रत कहा गया है ।
सावद्ययोगविरतेरभ्यासो
जायते ततः । समभावविकासः स्यात्, तच्च सामायिकं व्रतम् ॥ ३४ ॥
३४. जिससे सावद्य (पापकारी ) प्रवृत्तियों से निवृत्त होने का
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