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अक्रिया जायते तस्मान्निर्वाणं तत्फलं भवेत् ।
महान्तं जनयेल्लाभं, महतां संगमो महान् ॥१३॥ १३. व्यवदान का फल है अक्रिया-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध और अक्रिया का फल है निर्वाण। इस प्रकार महापुरुष के संसर्ग से बहुत बड़ा हित होता है।
उपासना का अर्थ है--समीप बैठना । अच्छाई की उपासना करने से व्यक्ति अच्छा बन जाता है और बुराई की उपासना करने से बुरा । हम जिनकी उपासना करते हैं वैसे ही बन जाते हैं। श्रावक के उपास्य हैं-अरिहन्त, सिद्ध और धर्म । उपासना केवल शारीरिक न हो, वह मानसिक भी होनी चाहिए । मन और शरीर की एकाग्रता मनुष्य को साध्य तक पहुंचा देती है। श्रावक के निकटतम उपास्य हैं—मुनि, श्रमण।
श्रमण की उपासना व्यक्ति को केवल श्रमण ही नहीं बनाती, वह मुक्त भी करती है। उपासना का आदि-चरण है श्रवण--सुनना और अन्तिम चरण हैनिर्वाण ।
उपासना के दस फल ये हैं : १. श्रवण-तत्त्वों को सुनना। २. ज्ञान--सत् और असत् का विवेक । ३. विज्ञान-तत्त्वों का सूक्ष्म और तलस्पर्शी ज्ञान । ४. प्रत्याख्यान-हेय का त्याग और उपादेय का स्वीकार । ५. संयम-आत्माभिमुखता। ६. अनाश्रव-कर्म आने के मार्गों का अवरोध । ७. तप-आत्मा को विजातीय तत्त्व से वियुक्त कर अपने आप में युक्त
करना। यह बारह प्रकार का है। ८. व्यवदान--पूर्व-संचित कर्मों के क्षय होने से होने वाली विशुद्धि । ६. अक्रिया-आत्मा के समस्त कर्म जब पृथक हो जाते हैं तब मन, वाणी
और शरीर की प्रवृत्ति रुक जाती है, वह अक्रिया है। १०.निर्वाण-आत्मा का पूर्ण उदय, कर्मों का सर्वथा विलय ।
सत्संगति का एक क्षण भी संसार-सागर से पार कर देता है। नारद ने भगवान् से कहा- मुझे मुक्ति दो। भगवान ने कहा-मैं स्वर्ग दे सकता हूं, और कुछ दे सकता हूं, किन्तु मुक्ति नहीं । मुक्ति के लिए संतों के पास जाओ।' संत वह है जिसने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। संत होने का अर्थ है-अपने पूरे
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