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अध्याय १५ : ३४७.
विषय में सोचा, किन्तु लगा प्राण तो उससे ही स्पन्दित होते हैं। वह न हो तो प्राणों का क्या मूल्य ! फिर मन के सम्बन्ध में सोचा। मन चंचल हैं। प्रतिक्षण बदलता रहता है। वह आत्मा तो अपरिवर्तनीय है। मैं मन से पार जो अनन्त शक्ति सम्पन्न, अजर, अमर है "वह हूं।" जिज्ञासा से अपने भीतर जो था उसे खोज लिया । असुर देह पर रुक गए। देवता मंजिल पर पहुंच गए । देवता अभेद में जीने लगे और असुर द्वैत में। - महावीर का यह स्वर पूर्ण अद्वैतवाद का है। वे कह रहे हैं--दूसरा कोई नहीं है। किन्तु जिनकी प्रज्ञा-चक्षु निमीलित है, वे बाह्य भेद के आधार पर दूसरों का उत्पीड़न करते हैं, शोषण करते हैं। उन्हें अपने अधीनस्थ बनाते हैं और उन पर अनुशासन करते हैं। वस्तुतः वे स्वयं की हिंसा करते हैं; स्वयं को पीडित करते हैं। स्वयं की असत्प्रवृत्ति से स्वयं ही बन्धन में फंसते हैं। प्रत्येक आत्मा पूर्ण स्वतंत्र है। दूसरों के निमित्त से हम अज्ञानवश स्वयं को दंड देते हैं । ज्ञान के प्रकाश में गल्ती करने वाला दंडनीय है। उसे बोध नहीं है। वह तो करुणा का पात्र है। उस पर क्रोध कर स्वयं को दंड नहीं दिया जाए। खलील जिब्रान ने कहा है-'अच्छी तरह आंख खोलकर देख, तुझे हर सूरत में अपनी सूरत नजर आएगी। अच्छी तरह कान खोल कर सुन, तुझे हर आवाज में अपनी आवाज सुनाई देगी।"
परिणामिनि विश्वेऽस्मिन्ननादिनिधने ध्रुवम् ।
सर्वे विपरिवर्तन्ते, चेतना अप्यचेतनाः॥३१॥ ३१. यह संसार नाना रूपों में निरन्तर परिणमनशील और आदि-अन्त-रहित है। इसमें चेतन और अचेतन सब पदार्थों की अवस्थाएं परिवर्तित होती रहती हैं।
उत्पाद-व्ययधर्माणो, भावा ध्रौव्यान्विता अपि ।
जीव-पुद्गलयोगेन, दृश्यं जगदिदं भवेत् ॥३२॥ ३२. पदार्थ उत्पाद और व्यय धर्म वाले हैं। उनमें ध्रौव्य (नित्यता) भी है। यह दृश्य जगत् जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न परिणति है।
आत्मा न दृश्यतामेति, दृश्यो देहस्य चेष्टया। देहेऽस्मिन् विनिवृत्ते तु, सद्योऽदृश्यत्वमृच्छति ॥३३॥
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