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३३८ : सम्बोधि
जीवन को सत्य के लिए समर्पित करना, परमात्मा के सिवाय और कुछ नहीं चाहना | अस्तित्व के उद्घाटन में जो अपने जीवन को लगा देता है, जिसने सत्य का साक्षात्कार कर लिया - ऐसे व्यक्ति के समीप होने का अर्थ है - उपासना । उसके पास धर्म होता हैं । वह धर्म सुना सकता है। जिसके पास धर्म न हो, वह धर्म कैसे दे सकता है ? महावीर कहते हैं- संत की उपासना से व्यक्ति को धर्म का सुनना मिलता है ।
जीवन में सबसे पहला कदम ही मुख्य होता है । अगर वह गलत दिशा में उठ जाता है तो आदमी भटक जाता है । यदि वह सही दिशा में उठ जाए तो मंजिल निकट हो जाती है । यह कहना चाहिए कि प्रथम कदम में ही प्रायः व्यक्ति चूक जाता है । इस उलझन भरे विश्व में सही दिशा - बोधक कठिनतम है । एक कवि ने कहा है- "कुछ व्यक्ति अज्ञान के कारण नष्ट होते हैं, कुछ व्यक्ति प्रमाद के कारण नष्ट होते हैं, कुछ ज्ञान के अवलेप (विद्या के घमंड ) के कारण नष्ट होते होते हैं और कुछ दूसरे नष्ट व्यक्तियों के संपर्क में आकर नष्ट होते हैं ।" धर्म की दिशा में पहला पाठ ठीक मिल जाए तो आत्म-दर्शन कोई असाध्य नहीं है ।
महावीर ने इसकी पूरी कड़ी प्रस्तुत की है। धर्म के श्रवण से उसका ज्ञान होता है और उस ज्ञान से व्यक्ति को विज्ञान - सत्यासत्य के निर्णय की क्षमता मिलती है । वह असत्य को असत्य और सत्य को सत्य देख लेता है । फिर उसके प्रत्याख्यान होता है । वह असत्य के आवरण - जाल से मुक्त हो जाता है । फिर उसके संयम होता है । वह स्वभाव में चला आता है । स्वभाव में स्थिर होने पर विजातीय तत्त्वों के आगमन का द्वार बन्द हो जाता है। प्रज्वलित हो जाती है । वह अग्नि कर्म ( विजातीय मल ) को देती हैं। साधक शुद्ध हो जाता है । वह स्वयं के ही स्वभाव से छलाछल भर जाता है और पूर्ण अक्रिय हो जाता है । यह समुचित कदम का सुफल है ।
भीतर तप की अग्नि जलाकर भस्म कर
निश्चये व्रतमापन्नो व्यवहारपदुर्ग ही । समभावमुपासीनोऽनासक्तः कर्मणीप्सिते ॥ १४॥
१४. जो गृहस्थ अन्तरंग में व्रतयुक्त है और व्यवहार में पटु है वह समभाव की उपासना करता हुआ इष्टकार्य में आसक्त नहीं होता ।
श्रावक एक सामाजिक व्यक्ति होता है । उस पर घरेलू, सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियां भी होती हैं। धर्म की आराधना करता हुआ वह उनसे
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