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३३६ : सम्बोधि
एक कवि के शब्दों में देखिए—अर्थ की उत्पत्ति में दुःख उठाना होता है। उत्पन्न अर्थ की सुरक्षा करनी होती है। इसमें भी दुःख है । आय में दुःख है और व्यय में भी दुःख है। अतः अर्थ दु:ख का स्थान है। श्रावक परिग्रह से मुक्त होने के लिए प्रतिदिन यह संकल्प करता है कि कब मैं अल्पमूल्य परिग्रह का प्रत्याख्यान करूंगा।
दूसरा आदर्श उसके सामने मुनि का है, जिसका जीवन निश्चित, निरावाध, निर्द्वन्द्व और निरापद है। एक कयि ने गाया है--जिस साधु-जीवन में न राज्यभय है, न चोरों का डर है, न आजीविका भय है और न किसी के वियोग का भय है, वह ऐहिक और पारलौकिक दोनों जीवन के लिए कल्याणकारी है। वहां समस्त असत् प्रवृत्तियों का निरोध होता है। आत्मा को निकट से देखने के लिए यह अति उत्तम जीवन है। अतः वह कहता है कब मैं मुण्ड हो, गृहस्थपन छोड़, साधुव्रत स्वीकार करूंगा।
शरीर सब कुछ नहीं है। आत्म-धर्म के सामने यह गौण है। भोजन से शरीर टिकता है। शरीर साधन है। साध्य-सिद्धि के लिए उसे भोजन दिया जाता है। जब वह जीर्ण हो जाता है, साध्य में सहायक नहीं होता, तब उसका त्याग किया जाता है। शरीर के प्रति जो कुछ लगाव होता है उससे हटकर साधक सम बन जाता है । फिर उसे मृत्यु का डर नहीं सताता। शरीर छूटता है, चाहे साधक उसे छोड़े या वह साधक को छोड़े। इसलिए तीसरा संकल्प है। कब में समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त करूंगा।
श्रमणोपासना कार्या, श्रवणं तत्फलं भवेत् ।
ततः सञ्जायते ज्ञान, विज्ञानं जायते ततः ॥११॥ ११. श्रमण की उपासना करनी चाहिए। उपासना का फल धर्म-श्रवण है। धर्म-श्रवण से ज्ञान और ज्ञान से विज्ञान उत्पन्न होता है।
प्रत्याख्यानं यतस्तस्य, फलं भवति संयमः। अनाश्रवस्तपस्तस्माद्, व्यवदानञ्च जायते ॥१२॥
१२. विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है और प्रत्याख्यान का फल संयम है । संयम का फल है अनाश्रव (कर्म-निरोध), अनाश्रव का फल है तप और तप का फल है-व्यवदान (कर्म-निर्जरण)।
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