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आमुख
धर्म जीवन का एक आवश्यक अंग है। इसे जो भूलता है वह अपने आपको भलता है। जीवन के लिए अन्य कार्य आवश्यक हैं, वैसे धर्म भी। जो इसे जानता है, मानता है और विश्वास करता है वह धर्म का आचरण भी करता है। धर्म केवल जानने का ही विषय नहीं है, वह आचरण का भी विषय है। प्रत्येक कार्य में धर्म को सामने रखा जाए तो मनुष्य अनैतिक और अधार्मिक नहीं हो सकता।
आत्मा का एक शरीर में नियत-वास नहीं है। आस्तिक इसे स्वीकार करते हैं इसलिए वे यह भी स्वीकार करते हैं कि हिंसा किसी अन्य की नहीं, अपनी ही होती है । हिंसा के निमित्त हैं-राग, द्वेष, मोह, प्रमाद आदि । __ श्रुत और आचार की उपासना आत्म-धर्म है । श्रुत और आचार से भिन्न धर्म कर्तव्य और स्वभाव की दृष्टि से हैं। आत्म-विकास में वे सहयोगी नहीं बनते। मोक्ष श्रुत ओर आचरण का योग है। आत्मा का विकास इन्हीं के द्वारा. होता है । इस अध्याय में ये ही विवेच्य विषय हैं ।
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