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३२० : सम्बोधि
अच्छी है, आत्मोन्मुखी है। लेकिन वह सर्वथा विरत नहीं है। अतः सत् प्रवृत्ति वाला होते हुए भी मुनि नहीं कहला सकता। साधुत्व के लिए एक ही मार्ग है और वह है अविरति-त्याग। __ गृहस्थ के लिए यह अपेक्षित है कि वह मन, वाणी और शरीर को सत् की ओर लगाये । योगों की सरलता, समता और शालीनता धार्मिक साधना की कसौटी है। वह अनर्थ हिंसा, झूठ, चोरी आदि से बचे और आवश्यक हिंसा आदि में भी मन को अनासक्त रखे, जिससे सहज में ही कर्म-बन्धनों के प्रगाढ़ लेप से बच सके।
इतस्ततः प्रसर्पन्ति, जना लोभाविलाशया।
तेन दिगविरतिः कार्या, गृहिणा धर्मचारिणा ॥३१॥ ३. लोभी मनुष्य अर्थार्जन के लिए इधर-उधर सुदूर प्रदेश तक जाते हैं। इसलिए धार्मिक गृहस्थ को दिविरति-दिशाओं में गमनागमन का परिमाण करना चाहिए।
पांच अणुव्रतों में स्थूल रूप से मर्यादा की जाती है। विश्व विशाल है। मन की आकांक्षाएं भी विशाल हैं। आकांक्षा का संवरण करने के लिए व्यक्ति क्षेत्र (स्थान) का भी संवरण करे। मर्यादावान् व्यक्ति अपने सीमित क्षेत्र से बाहर व्यापार आदि नहीं करता। यह मन पर एक बहुत बड़ा नियंत्रण है । अपनी त्याग वृत्ति के अनुसार पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर हर तरह के सावद्यकार्यों से निवृत्ति करना दिविरति व्रत है।
उपभोगः पदार्थानां, मोहं नयति देहिनः।
भोगस्य विरतिः कार्या, तेन धर्मस्पृशा विशा ॥३२॥ ३२. पदार्थों का भोग मनुष्य को मोह में डालता है इसलिए धार्मिक पुरुष को भोग की विरति (परिमाण) करना चाहिए।
मनुष्य का जीवन सीमित है, लेकिन भोग्य पदार्थ सीमित नहीं हैं । वह स्वल्प जीवन में असीमित पदार्थों का भोग नहीं कर सकता। __ अतृप्ति उसे सदा सताती रहती है। भर्त हरि ने कहा है-'भोगों को हमने नहीं भोगा किन्तु भोगों ने हमें भोग लिया है। हमने तप नहीं किया किन्तु बिना तप किए हम तप्त हो गए। काल नहीं आया, हम काल के निकट पहुंच गए हैं और तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, हम जीर्ण हो गए।' अतृप्ति दुःख है और संतोष सुख ।
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