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अध्याय १४ : ३१७
२४. अर्थजा हिंसा करते समय जो प्रबल आसक्ति नहीं रखता वह चिकने कर्म - परमाणुओं से लिप्त नहीं होता ।
हिंसा न क्वापि निर्दोषा, परं लेपेन भिद्यते । आसक्तस्य भवेद् गाढोऽनासक्तस्य भवेन्मृदुः ॥२५॥
२५. हिंसा कहीं भी निर्दोष नहीं होती, परन्तु उसके लेप में अन्तर होता है । आसक्त पुरुष कर्म के गाढ़-लेप से और अनासक्त पुरुष मृदु-लेप से लिप्त होता है ।
हिंसा हिंसा है । वह कभी अहिंसा नहीं होती और अहिंसा कभी हिंसा नहीं होती । अहिंसा अबन्धन है और हिंसा बन्धन । अहिंसा में भावों की तरतमता नहीं होती । उसका सदा पवित्र भावनाओं से सम्बन्ध है । हिंसा में राग और द्वेष की नियतता है । देखना यही है कि राग और द्वेष का प्रवाह कितना तीव्र है । एक व्यक्ति साधारण कर्म करता हुआ भी उसमें अनुरक्त होता है और एक असाधारण कार्य करता हुआ भी उसमें आसक्त नहीं रहता ।
महाराज जनक की एक घटना से यह स्पष्ट हो जाता है । एक बार जनक किसी अन्य राजा के अतिथि बने । वे कुछ दिन वहां रुककर जब जाने लगे तो राजा ने अतिथि से पूछा - 'यहां आपको कैसा लगा ?' जनक का भी संक्षिप्त-सा सहज उत्तर था—'बहुत बड़े भव्य महल में एक तुच्छ जीवन ।' वहां से आते हुए मार्ग में एक साधु की कुटिया थी । कुछ दिन वहां रहने का भी सौभाग्य मिला | वे सत्संग, ध्यान, भजन आदि नियमित कार्यों में सतत भाग लेते रहे। जब वहां से विदा होने लगे तो संत ने सहज प्रश्न किया- 'यहां आपको कैसा लगा ?" जनक का भी संक्षिप्त उत्तर था— - 'एक छोटी-सी झोंपड़ी में एक महान् जीवन ।'
जिस कार्य में आसक्ति की मात्रा अधिक होती है वहां कर्म का बन्धन भी दृढ़ होता है, उसका फल भी कटुक होता है। जहां आसक्ति नहीं है वहां कर्म का बन्धन गाड़ नहीं होता और फल भी दारुण नहीं होता । असत् कर्म से बन्धन अवश्य है, भले वह अनासक्तिपूर्वक हो या आसक्तिपूर्वक । जैन दर्शन में अनासक्ति का पूर्ण रूप वहां निखार पाता है जहां सत् और असत् के प्रति भी आकांक्षा छूट जाती है । सत् कर्म में भी पुण्य कर्म प्रवाहित होता रहता है किन्तु उसका फल दारुण नहीं होता । आसक्ति की तीव्रता और अतीव्रता से उसके फल में वैसा ही रस पड़ता है।
tar का अनासक्ति योग और जैन के अनासक्त योग में साम्य नहीं है । अनासक्तिपूर्वक किया गया कोई भी और कैसा भी कार्य बन्धन-रहित है, यह जैन धर्म
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