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अध्याय १४ : ३१५
धर्म का अभ्यास शक्ति पर निर्भर रहता है। शक्ति के दो रूप हैं-लब्धिवीर्य और करणवीर्य । धर्म का सम्बन्ध केवल शारीरिक शक्ति से ही नहीं है। शारीरिक शक्ति से सम्पन्न होते हुए भी अनेक व्यक्ति हिंसा, झूठ, कुकृत्य आदि कर्मों में संलग्न रहते हैं। इसके विपरीत शरीर-बल से क्षीण व्यक्ति अहिंसा, अभय, आत्म-दमन आदि क्रियाओं में सावधान देखे जाते हैं। वे लब्धि-वीर्य से सम्पन्न हैं। आत्म-शक्ति को आवृत करने वाली कर्म-वर्गणाएं जब सक्रिय होती हैं, तब व्यक्ति का सामर्थ्य व्यक्त नहीं होता। उसका मन आत्मोन्मुख न होकर बहिमुख होता है । वह आत्म-जागरण में स्वशक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता। करणवीर्य शरीर के माध्यम से व्यक्त होता है।
कम योगः प्रवृत्तिर्वा, व्यापारः करणं क्रिया। एकार्थका भवन्त्येते, शब्दाः कर्माभिधायकाः॥१६॥ १६. कर्म, योग, प्रवृत्ति, व्यापार, करण और क्रिया-ये कर्म के वाचक (एकार्थक शब्द) हैं।
सदसतोः प्रभेदेन, द्विविधं कर्म विद्यते । निवृत्तिरसतः पूर्व, ततः सतोऽपि जायते ॥१७॥
१७. कर्म (करण) के दो प्रकार हैं-सत् और असत् । साधना के प्रारंभ में असत् कर्म की निवृत्ति होती है और जब साधना अपने चरम रूप में पहुंचती है तब सत्कर्म की भी निवृत्ति हो जाती है।
निरोधः कर्मणां पूर्णः, कतुं शक्यो न देहिभिः । विनिवृत्ते शरीरेऽस्मिन्, स्वयं कर्म निवर्तते ॥१८॥
१८. जब तक शरीर रहता है तब तक देहधारी जीव कर्म (क्रिया) का पूर्ण रूप से निरोध नहीं कर सकते । शरीर के निवृत्त होने पर कर्म अपने-आप निवृत्त हो जाता है ।
विद्यमाने शरीरेऽस्मिन्, सततं कर्म जायते। निवृत्तिरसतः कार्या, प्रवृत्तिश्च सतस्तथा ॥१६॥
१६. जब तक शरीर विद्यमान रहता है तब तक निरन्तर कर्म होता रहता है । इस दशा में असत्कर्म की निवृत्ति और सत्कर्म की
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