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अध्याय १३ : २६४
महावीर की दृष्टि अन्तःस्थित है। वेष से अधिक महत्त्व है उनकी दृष्टि में समता, ज्ञान-दर्शन और चारित्र का। वेष है और ज्ञान दर्शन नहीं है तो महावीर की दृष्टि में यह केवल आत्मघाती है। इसलिए वे कहते हैं-केश-लुंचन या सिर को मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता। श्रमण वह होता है जो सर्वदा समस्त स्थितियों में संतुलन बनाए रखता है, राग और द्वेष की तरंगें जिसे प्रकम्पित नहीं करती। ब्रह्म-आत्मा में निवास करने वाला ब्राह्मण होता है। मुनि वह होता है जो सम्यग् ज्ञान में स्थित है और तापस वह है जो स्वभाव की दिशा में अग्रसर होता है । चारों के चार भिन्न मार्ग नहीं हैं। शब्द भिन्न हैं, दिशा सबकी आत्मोन्मुखी है। एक दिशा का परिवर्तन ही जीवन का परिवर्तन है। वेष-भूषा है संत की और जीवन का मुख है संसार की तरफ तो उससे वांछित सिद्धि नहीं होती।
कर्मणा ब्राह्मणो लोकः, कर्मणा क्षत्रियो भवेत् । कर्मणा जायते वैश्यः, शूद्रो भवति कर्मणा ॥२५॥
२५. मनुष्य कर्म (क्रिया) द्वारा ब्राह्मण होता है, कर्म द्वारा क्षत्रिय होता है, कर्म द्वारा वैश्य होता है और कर्म द्वारा शूद्र होता
है
न जातिर्न च वर्णोऽभूद, युगे युगल-चारिणाम् । ऋषभस्य युगादेषा, व्यवस्था समजायत ॥२६॥
२६. जो भाई-बहन के रूप में एक साथ उत्पन्न होते हैं और पति-पत्नी बनकर साथ ही मरते हैं, उन्हें युगलचारी-यौगलिक कहा जाता है। भगवान् ऋषभदेव के पहले का काल युगलचारियों का युग कहलाता है। उस युग में न कोई जाति थी और न कोई वर्ण था। भगवान ऋषभ के युग में जाति और वर्ण की व्यवस्था का प्रवर्तन हुआ।
एकव मानुषी जातिराचारेण विभज्यते। जातिगर्वो महोन्मादो, जातिवादो न तात्त्विकः॥२७॥
२७. मनुष्यजाति एक है। उसका विभाग आचार के आधार पर होता है । जाति का गर्व करना बहुत बड़ा उन्माद है क्योंकि जातिवाद कोई तात्त्विक वस्तु नहीं है, उसका कोई आधार नहीं है।
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