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३०० : सम्बोधि
जातिवर्ण शरीरादिबाह्य भेदे विमोहितः । आत्माऽऽत्मसु घृणां कुर्यादेषमोहो महान् नृणाम् ॥२८॥
२८. जाति, वर्ण, शरीर आदि बाह्य भेदों से विमूढ़ बनकर एक आत्मा दूसरी आत्मा से घृणा करे – यह मनुष्यों का महान् मोह है ।
व्यवहाराश्रित है और धर्म आत्माश्रित । आत्म- जगत् में प्रत्येक प्राणी समान है। वहां जातियों के विभाग इन्द्रियों के आधार पर हैं । धर्म के आधार पर व्यक्तियों का बंटवारा करना धर्म को कभी प्रिय नहीं है । धर्म के उपदेष्टाऋषियों ने कहा -- प्रत्येक प्राणी को अपने जैसा समझो। उनकी दृष्टि में भाषाभेद, वर्ण-भेद, धर्म-भेद, जाति-भेद आदि का महत्त्व नहीं था । जातियों की कल्पना केवल कर्म - आश्रित की गयी थी । 'मनुष्य जाति एक है' - ऐसा कहकर सबमें भातृत्व के बीज का वपन किया था । किन्तु मनुष्य इस इकाई - सत्य को भूलकर अनेकता में विभक्त हो गया । वह जाति के मद में एक को ऊंचा और एक को नीचा देखने लगा । फलस्वरूप समाज में घृणा की भावना फैली।
युग के आरम्भ में जातियों की व्यवस्था नहीं थी । वह यौगलिक युग था । जनसंख्या भी अधिक नहीं थी । जो भाई - बहन के रूप में एक साथ उत्पन्न होते और पति-पत्नी बनकर एक साथ ही मरते उन्हें युगलचारी योगलिक कहा जाता था । यौगलिक युग पलटा और कर्म का युग आया। तब भगवान् ऋषभनाथ ने कर्म के आधार पर व्यक्तियों का विभाजन किया। समय के साथ-साथ उनमें कितने उतार-चढ़ाव आए हैं इसे इतिहासज्ञ जानते हैं ।
१. ब्राह्मण – ब्रह्म-आत्मा की उपासना करना, औरों को इसका उपदेश - करना ब्राह्मण का काम था । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है— ब्राह्मण का काम 'मा हण माहण' - 'हिंसा मत करो यह उपदेश देना था । 'माहण' शब्द ही ब्राह्मण के रूप में व्यवहृत होने लगा । गीता में प्रशान्तता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहनशीलता, ईमानदारी, ज्ञान-विज्ञान और धर्म में श्रद्धा - ये ब्राह्मण के स्वा* भाविक गुण हैं ।
२. क्षत्रिय - आततायियों से देश आदि की रक्षा करने वाला वर्ग ।
३. वैश्य - व्यापार, कृषि आदि से वृत्ति करने वाला वर्ग ।
४. शूद्र - समाज की सेवा करने वाला वर्ग ।
इस व्यवस्था में काम की मुख्यता है । जन्म मात्र से कोई ऊंचा और नीचा नहीं होता। एक ब्राह्मण भी शूद्र हो सकता है और एक शूद्र भी ब्राह्मण । यह - सारी एक मनोवैज्ञानिक पद्धति थी । श्री गेलार्ड ने अपनी पुस्तक 'मैन दी मास्टर' में समाज के चतुर्विध संगठन की आवश्यकता पर जोर दिया है ।
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