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२६२ : सम्बोधि
जाएं तो फिर वह सम्मोहन हो जाएगा। एक टूटेगी, दूसरी निर्मित होगी। किंतु अनुभूति नहीं होगी।
___ अमेरिका के राष्ट्रपति लिंकन की जन्म-शताब्दी मनाई जाने वाली थी। लिंकन से मिलते-जुलते व्यक्ति को उसकी भूमिका निभाने के लिए चुना गया। उसने वर्ष भर यात्रा की। लिंकन का पार्ट अदा किया। वह संस्कार इतना सघन हो गया कि वह अपने आप को लिंकन समझने लगा। वर्ष पूरा हो गया, किन्तु उसका सपना नहीं टूटा। लोगों ने बहुत समझाया कि तुम लिंकन नहीं हो। लेकिन वह किसी तरह इसको स्वीकार करने के लिए राजी नहीं हुआ। कुछ लोगों ने कहा, जैसे लिंकन को गोली मारी वैसे ही इसको भी गोली मार दो। अन्ततोगत्वा एक मशीन का निर्माण किया गया, जो असल को प्रगट कर सके । अनेक परीक्षण सफल हुए। किन्तु वह मशीन पर खड़ा हुआ। उसने सोचा, सब कहते हैं-तू लिंकन नहीं है, कह दूं और उससे पीछा छुड़ा लूं। वह बोला--मैं लिंकन नहीं हं, किन्तु मशीन ने बताया कि तू लिंकन है, वह फेल हो गई। भावना का इतना गहरा असर हुआ कि लिकन न होते हुए भी लिकनाभास अवचेतन मन में पेठ गया। इसलिए यह अपेक्षित है कि साधक भावना के साथ-साथ सचाई के दर्शन से पराङ्मुख न हो। वह ध्यान के अभ्यास के साथ-साथ भावना का अनुशीलन करता रहे।
महावीर ने भावना को नौका कहा है। जैसे नाव से समुद्री यात्रा सानन्द सम्पन्न होती है, वैसे ही भावना रूपी नौका से चित्त को साध्य के अनुरूप सुवासित कर भव-सागर को पार किया जा सकता है। सूफी सन्तों ने एक सुझाव साधकों को दिया है कि जो भी दिखाई पड़े, उसे परमात्मा मानकर चलना। अनुभव हो तब भी और कल्पना करनी पड़े तब भी। क्योंकि वह कल्पना एक दिन सिद्ध होगी। जिस दिन सिद्ध होगी, उस दिन किसी से क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी।" इसमें भावना और अनुभूति-दोनों का स्पष्ट दर्शन है। __ साधक ध्यान के पूर्व और ध्यान के बाद भावनाओं के अभ्यास का सतत स्मरण करता रहे। उनसे एक शक्ति मिलती है, धीरे-धीरे मन तदनुरूप परिणत होता है। मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर सत्य की दिशा में अनुगमन होता है
और एक दिन स्वयं को तथानुरूप प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। भावना और ध्यान के सहयोग से मंजिल सुसाध्य हो जाती है। साधक इन दोनों की अपेक्षा को गौण न समझे। सभी धर्मों ने भावना का अवलम्बन लिया है।
भावनाएं विविध हो सकती हैं। जिनसे चित्त विशुद्धि होती है तथा अविद्या का उन्मलन और विद्या की उपलब्धि होती है-वे सब संकल्प और विचार भावनाओं के अन्तर्गत हैं। फिर भी संतों ने उनका कुछ वर्गीकरण किया है। उन्हें बारह और चार-इस प्रकार दो भागों में विभक्त किया है।
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