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आमुख
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आत्मा का शुद्ध स्वरूप उपादेय है । वही साध्य है । वह कैसे प्राप्त होता है, इसकी विधि का नाम साधना है । साधना को एक शब्द में बांधा जाए तो वह है संयम | साध्य का अधिकारी वही होता है जो संदेह के वातावरण में सांस नहीं लेता । की प्राप्ति में इन्द्रिय, मन और शरीर बाधक होते हैं । आत्मा के साथ इनका गहरा सम्पर्क है । ये आत्मा को अपने जाल में यदा-कदा फंसाते ही रहते हैं । अबुद्ध आत्मा इस जाल से मुक्त नहीं हो सकती । प्रबुद्ध आत्मा मन आदि के घेरे में नहीं आती । यदि मोहवश उनका शिकार हो जाती है तो वह तत्क्षण उससे मुक्त होने का प्रयत्न करती है । उसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता है । वह जानती है कि बन्धन के स्रोत कहां-कहां हैं । जिसे बन्धन के मार्गों का अवबोध नहीं है, वह प्रतिक्षण उसका संग्रह करता रहता है। एक के बाद एक बन्धन की शृंखला जुड़ती चली जाती है । इसलिए साध्य, साधन और उसके ज्ञान की ज्ञप्ति अत्यन्त आवश्यक है । इस अध्याय में इन्हीं का विशद विवेचन है ।
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