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सम्यग्दर्शनसम्पन्नः, श्रद्धावान् योगमर्हति । विचिकित्सां समापन्नः, समाधि नैव गच्छति ॥ ५६ ॥
अध्याय १२ : २७३
५६. जो सम्यग् दर्शन से सम्पन्न और श्रद्धावान् है, वह योग का अधिकारी है । जो संशयशील है वह समाधि को प्राप्त नहीं होता ।
आस्तिक्यं जायते पूर्वमास्तिक्याज्जायते शमः । शमाद् भवति संवेगो, निर्वेदो जायते ततः ॥५७॥ निर्वेदादनुकम्पास्यादेतानि मिलितानि च ।
श्रद्धावतो लक्षणानि जायन्ते सत्यसेविनः ॥ ५८ ॥
५७-५८. पहले आस्तिक्य होता है, आस्तिक्य से शम होता है, शम से संवेग होता है, संवेग से निर्वेद होता है और निर्वेद से अनुकम्पा उत्पन्न होती है । ये सत्र सत्य सेवो श्रद्धावान् ( सम्यक दृष्टि ) के लक्षण हैं ।
इन श्लोकों में सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के लक्षणों का निरूपण किया गया है । वे पांच हैं :
१. आस्तिक्य - आत्मा, कर्म आदि में विश्वास ।
२. शम - क्रोध आदि कषायों का उपशमन ।
३. संवेग - मोक्ष के प्रति तीव्र अभिरुचि ।
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४. निर्वेद - वैराग्य । उसके तीन प्रकार हैं- संसार - वैराग्य, शरीर वैराग्य और भोग - वैराग्य ।
५. अनुकम्पा - कृपा भाव, सर्वभूतमैत्री - आत्मौपम्य भाव । प्राणीमात्र के प्रति अनुकम्पा ।
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अहिंसा दया का पर्यायवाची नाम है। पंचाध्यायी में इसका बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है । उसमें कहा है- " जो समग्र प्राणियों के प्रति अनुग्रह है, उस अनुकम्पा को दया जानना चाहिए । मैत्रीभाव, मध्यस्थता, शल्य - वर्जन और वैरवर्जन ये अनुकम्पा के अन्तर्गत हैं ।" इससे दया का विशद स्वरूप हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है । जिस दया में किसी का भी उत्पीड़न नहीं होता, वस्तुतः वही सच्ची अनुकम्पा है ।
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