________________
२७० : सम्बोधि
जाता है। मित्र-मन सर्वत्र प्रसन्न रहता है और अमित्र-मन अप्रसन्न । शत्रु-मन अशान्त, हिंसक, घृणायुक्त और क्लिष्ट रहता है। उसमें प्रतिशोध की आग निरन्तर प्रज्वलित रहती है। मित्र-मन में ये सब दोष नष्ट हो जाते हैं। उसे भय नहीं रहता। ___मैत्री-भावना का साधक स्वयं अपने को कष्ट में डाल सकता है, किन्तु दूसरों को कष्ट नहीं देता। उसकी दृष्टि में पर-शत्रु जैसा कोई रहता ही नहीं। शत्रु का भाव ही अनिष्ट करता है। खलीफा अली अपने शत्रु के साथ वर्षों लड़ता रहा। एक दिन शत्रु हाथ में आ गया। उसकी छाती पर बैठ भाला मारने वाला ही था, इतने में शत्रु ने मुंह पर थूक दिया। अली को एक क्षण गुस्सा आया और बोला---'आज नहीं लड़ेंगे।' लोगों ने कहा, 'कैसी मुर्खता कर रहे हैं ?' वर्षों से शत्रु हाथ आया और आप छोड़ रहे हैं।' अली ने कहा-'कुरान का वचन हैक्रोध में मत लड़ो।' मुझे गुस्सा आ गया। शत्रु को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पूछा-'इतने वर्षों क्या आप बिना क्रोध के लड़ रहे थे ?' अली ने उत्तर दिया-- "हां।' शत्रु चरणों में गिर पड़ा। उसे पता ही आज चला कि बिना क्रोध के भी लड़ा जा सकता है। वह मित्र हो गया। लड़ने का हेतु भिन्न हो सकता है, किन्तु क्रोध में नहीं लड़ना-यह मित्रता का परिचायक है। मैत्रीभाव का विराट रूप जब सामने आता है तब द्वैत नहीं रहता । 'आयतुले पयासु'-प्राणियों को अपने समान देखो-यह उसका फलितार्थ है।
(२) प्रमोद भावना-प्रमोद का अर्थ है-प्रसन्नता । जो स्वयं में प्रसन्न नहीं होता, प्रमोद भावना को समझना उसके लिए कठिन होता है । जो अपना मित्र बनता है, वही प्रमोद-प्रसन्न रह सकता है। जिसकी अपने में प्रसन्नता है उसकी -सर्वत्र प्रसन्नता है। वह अप्रसन्नता को देखता नहीं। अपने से जो राजी नहीं है, वही दूसरों के दोष देखता है, दूसरों की प्रसन्नता-विशिष्टता से ईर्ष्या करता है। दूसरों के गुणों को देखकर व्यक्ति स्वयं को प्रमोद भावना के द्वारा कितना ही भावित करे, किन्तु ईर्ष्या की ग्रंथि खुलनी कठिन है, भले ही कुछ देर के लिए मन को तृप्त करले। जिसे ईर्ष्या से मुक्त होना है उसे सतत प्रसन्नता का जीवन जीना चाहिए। यह कोई असम्भव नहीं है। जो कुछ प्राप्त है, उसमें सदा प्रसन्न रहे । अतृप्ति को पास फटकने न दे । जैसे-जैसे हम अपने से राजी होते जाएंगे, कोई वासना नहीं रहेगी। तब सहज ही दूसरों की विशेषताएं या अविशेषताएं हमारे लिए कोई महत्त्वपूर्ण नहीं होंगी। विशेषताएं जहां प्रसन्नता के लिए होंगी वहां अविशेषताएं करुणा उत्पन्न करेंगी। जैसे एक व्यक्ति विकास के चरम पद को पा सकता है वैसे दूसरा भी पा सकता है, किन्तु वह अपने को गलत दिशा में नियोजित कर रहा है, इसलिए करुणा का पात्र है। स्वयं में प्रसन्न रहना सीखें, फिर दूसरों -से अप्रसन्नता भी नहीं आयेगी और दूसरों के गुणों के उत्कर्ष से अप्रसन्नता भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org