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२४८ : सम्बोधि
अहीसाथ मया प्रोक्त-मात्ससाम्यं चिराध्वनि । तदर्थ प्राप्तदुःखानि, सोढव्यानि मुमुक्षुभिः ॥१८॥
१८. साधना की चिर परंपरा में मैंने आत्मसाम्य का निरूपण अहिंसा के विकास के लिए किया है । मुमुक्षु व्यक्तियों को अहिंसा की साधना के मध्य जो भी दुःख प्राप्त हों उन्हें सहना चाहिए ।
न देहोऽधर्ममूलोऽसौ, धर्ममूलो न चाप्यसौ । योजितो योजकेनाऽसौ, धर्माधर्मकरो भवेत् ॥१६॥
१६. देह न अधर्म का मूल है और न धर्म का । योजक के द्वारा जिस प्रकार उसकी योजना की जाती है, उसी प्रकार वह धर्म या अधर्म का मूल बन जाता है ।
नास्य शक्तिः परिस्फीता, विकारोद्दीपनं सृजेत् । तेनासौ कृशतां नेयः, यावदुत्सहते मनः ॥२०॥
२०. बढ़ी हुई शारीरिक शक्ति विकारों का उद्दीपन न करे, इसलिए जब तक मन का उत्साह बढ़ता रहे तब तक शरीर को तप के द्वारा कृश करना चाहिए।
नात्मासौ शक्तिहीनानां, गम्यो भवति सर्वदा। योगक्षेमौ हि तेनास्य, कार्यावपि मुमुक्षणा ॥२१॥
२१. शक्तिहीन मनुष्यों के लिए आत्मागम्य नहीं होता, यह शाश्वत सिद्धान्त है। इसलिए मुमुक्षु व्यक्तियों के लिए भी शरीर का योग-क्षेम करणीय होता है ।
न केवलमसौ देहः, कृशीकार्यो विवे किना। न चापि बृहणीयोऽस्ति, मतं संतुलनं मम ॥२२॥
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